Saturday, September 21, 2019

एक बीवी की निगाह से देखिए कि उसका जासूस पति क्या अहमियत रखता है...


अमेजॉन प्राइम पर स्ट्रीम हुई वेब सीरिज 'द फैमिली मैन' आप देख सकते हैं, बशर्ते इसे एक स्पाई की कहानी के नजरिए से नहीं, बल्कि एक भारतीय मुसलमान, आतंक से लड़ रहे सरकारी सिस्टम और एक स्पाई की बीवी के नजरिए से देखने की कोशिश कीजिए...

"भारत पर कोई आतंकी हमला होने वाला है। जिसके कुछ कोड वर्ड्स हमें मिल गए हैं। हमले के मास्टरमांइड पाकिस्तान या पाक अधिकृत कश्मीर में बैठे हैं। उनके तार अफगानिस्तान, सीरिया, यूएई, सूडान, यूंगाडा जैसे इस्लामिक देशों से होते हुए सोवियत रुस और यूएएस तक पहुंचते हैं। इस खेल में सिर्फ आतंकी नहीं हैं। इसमें सरकार बनाने बिगाड़ने की हैसियत रखने वाले पॉवरफुल लोग हैं, दुनिया भर को हथियार सप्लाई करने वाली कंपनियों के ब्रोकर्स हैं, कई सारे बड़े कार्पोरेट्स हैं। भारत खुफिया एजेंसी के अधिकारी अपनी लगन, समर्पण और कूटनीति से इन चालों को नाकाम कर देते हैं।"  ये सिनेमा का वो प्लाट है जिसे बुनियाद बनाकर दर्जनों हिंदी फिल्में रची जा चुकी हैं।

कहानी के ये प्लाट भी उनके ओरिजनल नहीं रहे हैं। पश्चिम में सेकेंड वर्ल्ड वॉर, यहूदी दमन, ईराक, वियतनाम, अफगानिस्तान, इजराइल फिलिस्तीन युद्घ जैसे बड़े मामलों पर ढेरों अच्छी और बुरी फिल्में बनी हैं। वर्ल्ड वॉर के बाद शुरू हुए कोल्ड वॉर के दौरान जासूसी की दुनिया शुरू होती है। उन फिल्मों का एक अलग जॉनर हैं। श्रीराम राघवन जैसे सक्षम फिल्मकारों ने भी स्पाई और युद्घ फिल्मों के कॉकटेल को मिलाकर सिर्फ संदर्भ बदलकर परोस देने की कोशिश की है। हमारे पास काबुल एक्प्रसेस और फैंटम जैसी भी बेहद घटिया फिल्‍में भी हैं और मद्रास कैफे जैसी बेहतरीन फिल्‍म भी।


 तो क्या अमेजन प्राइम पर स्ट्रीम हुई फिल्म द फैमिली मैन ऐसी ही दर्जनों फिल्मों में से एक है जिसका हीरो भारतीय है और वह भारत के बचाने के मिशन में लगा हुआ है? पहले दो एपीसोड देखकर ऐसा ही लगता है। पर खत्म होते-होते ऐसा नहीं लगता। यह वेब सीरिज तब बड़ी लगने लगती है जब यह आतंकवाद और आतंकवादी बनने की प्रक्रिया को एक नए ढंग से देखने लगती है। इस बार ये बिल्कुल जरुरी नहीं कि आतंकवादी समंदर के रास्ते भारत में घुसे।

फैमिली मैन बताती है कि भारत पर हमला करने के लिए आतंकी यहीं के ही हैं, सिर्फ वहां से प्लान आया है। वह मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करते हुए, कॉलेज में पढ़ाई करते हुए, यू ट्यूब में वीडियो देखते हुए, किसी हिंदू प्रेमिका को डेट करते हुए भी वह आतंकवादी बने हुए हैं। वह जन्नत पाने के लिए, कश्मीरियों को हक दिलाने के ‌लिए या बाबरी मसजिद का बदला लेने के लिए आतंक के रास्ते नहीं चले हैं बल्कि वह इसलिए इस राह में है क्योंकि उन्हें अपने ऊपर हो रहे जुल्‍म् का बदला लेना है। वह भारत की सरकारों और यहां के बहुसंख्यक लोगों को सबक सिखाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। गुजरात दंगे, गौ हत्या, मॉब लिंचिंग, हिंदू वादी नेताओं के बयान उनकी प्रतिक्रिया के प्रमुख स्रोत हैं।

फिल्म अपने टैग लाइन से ही यह बताने की कोशिश करती है कि यह किसी सत्य घटना से प्रेरित नहीं बल्कि अखबारों में आमतौर पर छपने वाली खबरों से इंस्पायर्ड है। निर्देशक ने कोशिश की है आतंकवाद से लड़ने वाले सिस्टम, सरकारों के पक्ष के साथ उनका पक्ष भी रखा जाए जो कई बार सरकार की निगाह में तो गुनाहगार हैं लेकिन हर बार वह गुनाहगार नहीं होते। वैसे ही जैसे हर बार वह मासूम नहीं होते। कुछ फर्जी एनकाउंटर, मामूली शक में गोली मार देने या घर से उठा लेने जैसी घटनाएं भी फिल्म का हिस्सा बनती हैं और विमर्श के कुछ परागकण को छोड़कर आगे बढ़ जाती हैं।

यह वेब सीरिज आतंकवाद को देखने के नजर‌िए के साथ-साथ इस मायने में भी एक अलग है कि वह अपने जासूस को एक कूल, दिलफेंक, बॉडी बिल्डर की तरह पेश नहीं करती। मौका पड़ने पर वह हवाई जहाज भी नहीं उड़ा  सकता और पानी का जहाज भी। उसका नाम किसी फिल्‍मी के हीरो जैसा नहीं है। एक मीडिल क्लास का आदमी जिसका नाम श्रीकांत तिवारी(मनोज बाजपेई) है इस बार हमारा हीरो है। 'श्रीकांत तिवारी' नाम की अपनी सीमाएं हैं। ना तो वह जेम्स बॉड की तरह फ्लर्ट कर सकते हैं और दूसरा उनका मालूम है कि वह टॉम क्रूज भी नहीं है। उन्हें अपने बच्चों की पैरेंट्स मीटिंग में भी जाना है और किचन में अपनी बीवी की हेल्प भी करनी हैं। श्रीकांत तिवारी के पास ऐसे गुर्दे भी नहीं हैं जो लगातार शराब और सिगरेट पीने से खराब ना हों। श्रीकांत तिवारी को उन्हीं लिमिटेशन में देश भी बचाना है और परिवार भी।


आमतौर पर जासूसों की जिंदगी में बदलती हुई प्रेमिकाएं होती हैं। हॉट और मौकापरस्त।  श्रीकांत तिवारी की जिंदगी में बीवी है। एक बीवी और दो बच्चे । फिल्म की खूबसूरती उस एंगल को एक्सप्लोर करने की है जिस एंगल से श्रीकांत की बीवी अपने पति और उसकी नौकरी को देखती है। फैमिली को लेकर उसकी अवेलबिलटी को जज करती है। उसकी सेलरी की तुलना में उसके काम के घंटे कंपेयर करती है। उसकी पुरानी कार भी फिल्‍म में एक किरदार की तरह है।  एक जासूस की जिंदगी में ये एंगल नए हैं जो इस सीरिज को आतंकवाद पर बनी बाकी फिल्‍म से दूर खड़ा कर‌ते हैं।  श्रीकांत की बीवी के तौर पर तेलगू और मलयालम फिल्म की एक्ट्रेस प्रियमनी कमाल का काम करती हैं।

सुचित्रा अय्यर उर्फ सुचि का उनका किरदार बेहद खूबसूरती, ईमानदारी और सावधानी से लिखा गया है। जिन्हें आतंकवाद, पाकिस्तान, बम और जासूसी की दुनिया में रत्ती भर रुचि नहीं है उन्हें सिर्फ सुचि के किरदार के बदलाव और उसकी लेयर्स देखने के लिए यह फिल्म देखनी चाहिए। अघोषित तौर पर पति से होपलोस हो चुकी सुचि जब अपने एक कलीग की तरफ मुड़ती हैं तब फिल्म का वह हिस्सा अचानक बेहद रचनात्मक और खतरनाक हो उठता है। जिंदगी में कई बार पति और पति दोनों को लगता है कि दोनों की स्ट्रेंथ का सही आकलन एक-दूसरे नहीं कोई तीसरा कर रहा है। फैमिली मैन में ये तीसरा विलेन ना होकर भी विलेन से बड़ी हैसियत रखता है। इसकी हेल्प करने की नियत हमेशा कटघरे में होती है।


सुचि और उसके एक कलीग अरविंद (शरद केलकर)के बीच के ये रिश्ते प्रोफेशनल और प्लूटोनिक प्रेम के होते हैं या जिस्मानी? इसे राज और डीके ने बहुत ही संकेतों में कहने की कोशिश की है। दोनों किस तरह एक-एक स्टेप करीब आते हैं यह दिखाने में निर्देशक ने कई सारे मजेदार सीन गढ़े हैं जो कि बहुत सारे जिम्मेदारी भरी समझदारी लिए हुए हैं। जिन लोगों ने हैपी इंडिग फिल्‍म देखी होगी उन्हें सैफ और इलियाना डीक्रूज के बीच होटल में बने सेक्स रिलेशनशिप का वह सीन याद होगा। इस बार भी होटल है और दो होटल के कमरे के दो किरदार हैं। फर्क यह है कि दोनों मिडिल क्लास से आते हैं और मैरिड हैं।

 लोनेवाला के एक होटल कमरे में बेड पर लेटी सुचि और उसी कमरे के सोफे पर लेटे अरव‌िंद की आधी रात में होने वाली वाट्सअप चैट आपको अलग से बार-बार देखनी चाहिए। चैट के खत्म होने का प्वाइंट, उसके बाद कमरे की हलचल, यहीं सीन का खत्म हो जाना, गाड़ी में बैठे दोनों के सख्त चेहरे फिर बाद में एक लाइन में हुई उनकी चैट वालों हिस्सों को बहुत ही खूबसूरती से फिल्माया गया है। जिसके मायने आप निकालना चाहें तो निकाल लें, निर्देशक साफ-साफ कुछ नहीं कहता।


राज निधिमोरु और कृष्‍णा डीके निर्देशकों की जोड़ी ने इस फिल्‍म को डायरेक्ट किया है। ये सक्षम फिल्मकार हैं। 99, शोर इन द सिटी, गो गोवा गॉन, हैपी इंडिंग, जेंटलमैन और स्‍त्री फिल्मों को यह साथ-साथ निर्देशित कर चुके हैं। निर्देशकों की इस जोड़ी ने पहली बार इस तरह के जॉनर में हाथ आजमाया है। अच्छी बात ये है कि उन्हें अपनी स्ट्रेंथ पता है। वह आतंकवाद या जासूसी फिल्‍मों वाले कोर जोन में जाने की कोशिश नहीं करते। इसके बजाय उनकी कोशिश कुछ नए तरह के किरदार गढ़ने में होती है। राज और डीके की फिल्‍मों के किरदार आपको याद रहते हैं। ये फिल्म जितनी मनोज बाजपेई की फिल्‍म है उतनी ही यह शारिब हाशमी, नीरज माधव, प्रियमनी, दर्शन कुमार की भी फिल्म है।

दस ऐपीसोड वाली यह वेब सीरिज ऐसी जगह पर खत्म होती है जहां पर यह निश्चित है कि इसका सीजन 2 जरुर आना है। गूगल पर सर्च करने पर पता चलता है कि शायद ये तीन सीजन में बनने वाली सीरिज है। तो भातर पर केमिकल हमला हो पाता है या नहीं इसके लिए आपको इसके नए सीजन का वेट करना होगा। भारत पर एक और हमला सेक्रेड गेम्स में भी पेडिंग पड़ा है। सब मिलाकर भारत पर बहुत सारे हमले तो सिर्फ फिल्म इंडस्ट्री के बाकी हैं...

Friday, September 13, 2019

डियर कॉमरेडः यदि आपको कबीर सिंह उर्फ अर्जुन रेड्डी पसंद है तो आपको इसे देखना चाहिए...


हिंदी सिनेमा की कई त्रासदियों में एक त्रासदी ये भी है कि यदि वो आज कॉलेज लाइफ, स्टूडेंट यूनियन, उनकी पॉलिटिक्स, पॉलिटिकल आइडियोलॉजी के मतभेद और उसके इर्द-गिर्द पनप रहे किसी प्रेम की कहानी को कहना चाहे तो उसके पास चेहरे ही नहीं हैं। मोहब्बत करने के लिए आलिया भट्ट तो हो सकती हैं लेकिन उनके लिए कॉलेज कौन जाए?

अधेड़ हो चुके शाहिद कपूर या अधेड़ हो रहे सुशांत सिंह राजपूत? टाइगर श्रॉफ कॉलेज जा तो सकतें हैं, अभी पिछली फिल्‍म में गए भी थे लेकिन वह वहां डांस कर सकते हैं, शरीर की नुमाइश कर सकते हैं, पॉलिटिक्स की लेयर्स या किसी आइडियोलॉजी के चेहरे नहीं बन सकते हैं। अर्जुन रेड्डी के बाद विजय देवरकोंडा की नई फिल्‍म डियर कॉमरेड देखकर लगता है कि साउथ का सिनेमा इस मामले में धनी है। उसके पास कॉलेज जाने वाले हीरो हैं जो इश्क भी अच्छा करते हैं और क्रांति भी।

अर्जुन रेड्डी और अब डियर कॉमरेड के जरिए विजय देवरकोंडा एक ऐसे हीरो की उम्मीद जगाते हैं जो टूटकर प्रेम करना भी जानता है, रुठना भी और प्रेमिका के सामने बिखर जाना भी। कबीर सिंह फिल्म का विरोध करने वाली गैंग को भी डियर कॉमरेड देखनी चाहिए और उन्हें भी जिन्होंने कई दशक तक शाहरुख को प्रेमिकाओं का ख्याल करने वाले हीरो के रुप में पहचाना है। विजय सरसो के खेत में बांहे फैलाकर अपनी प्रेमिका को नहीं भरते ना ही छूट रही ट्रेन में अंतिम समय में हाथ बढ़ाकर अपनी प्रेमिका का हाथ पकड़ते हैं, लेकिन वो जिस तरह से अपनी प्रेमिका को चाहते हैं, वैसा चाहा जाना हर लड़की का सपना हो सकता है। विजय सपनों के हीरो हैं...

डियर कॉमरेड, शुरूआत में कॉलेज यूनियन की पॉलिटिक्स करने वाले एक गुस्सैल नायक की कहानी लगती है। बाद में यह कहानी स्टेल लेवल पर क्रिकेट खेल रही उसकी प्रेमिका की कहानी बन जाती है, जहां नायक सिर्फ उसके अधूरेपन को भरने की कोशिश भर के लिए है।

फिल्म अपने नाम को बहुत जस्टीफाई करने की कोशिश नहीं करती। ना ही वह हॉर्डकोर कॉमरेड या पोलित ब्यूरो की पॉलिटिक्स में घुसना चाहती है। वह कॉमरेड होने के अर्थ को समझाती है पर बिल्कुल आसान भाषा में बिना राजनैतिक हुए...फ़िल्म में रूस और चीन के तमाम सारे कम्युनिस्ट नेताओं की तस्वीरें तो दिखती हैं पर उनकी आइडियोलॉजी को न बताया जाता है न ही ग्लोरीफाई किया जाता है...

यह शुद्घ रुप से एक प्रेम कहानी ही है। एप्रोच के लेवल पर दो अलग-अलग तरह के इंसानों की प्रेम कहानी। कई सारे अवरोधों में लिपटी हुई ऐसी प्रेम कहानी जिसके कुछ हिस्से इन्हीं डिफरेंट एप्रोच के चलते उधड़ जाते हैं और बाद में उन पर तुरपाई भी हो जाती है। इस कहानी के अवरोध कई बार फिल्मी तो लगते हैं लेकिन कुछ अच्छे और नए सीन इन्हें संभालते रहते हैं। फ़िल्म की कहानी एक लिनियर लाइन में नहीं चलती। अंत तक पहुंचने के पहले यह यहां-वहां की कई सारी बातें कहना चाहती है। जिसके मकसद यकीनन रुहानी हैं।

फिल्म का आखिरी हिस्सा बीसीसीआई के जोन क्रिकेट सिलेक्टर के द्वारा एक महिला क्रिकेटर के संग यौन शोषण की कहानी बन जाती है। यौन शोषण करने और उसके छिपाने का तरीका कमजोर है। लेकिन बाद में उसके खिलाफ उठ खड़े होने वाली लड़ाई अच्छी है। इस लड़ाई को लड़ने में दो अलग-अलग लोगों के एप्रोच का कश्माकस ही फिल्‍म की जान है। फिल्म के हीरो के पास अपनी फिलॉसिफी को कहने के लिए बहुत सारे डायलॉग आए हैं। हीरोइन को आखिरी में मौका दिया गया है। जहां उसके ऊपर खरा उतरने का दबाव होता है..

डियर कॉमरेड कई हिस्सों में सिर्फ सिनेमा लगने के साथ ही कई जगह मीनिंगफुल भी लगती है। निर्मल वर्मा की फंतासी और यथार्थ की मिली जुली दुनिया जैसी। फिल्म के गाने समझ में नहीं आते लेकिन सुनने में अच्छे लगते हैं। फिल्म अंग्रेजी सब टाइटिल के साथ अमेजन प्राइम में उपलब्‍ध है। इस फिल्म के पास इतने मसाले हैं कि जल्द ही इसके हिंदी रीमेक बनाने के अधिकार खरीद जा सकते हैं, आप यह फिल्म देख सकते हैं।

सेक्शन 375 : एक ऐसी फिल्‍म जो रेप पीड़ित नहीं शायद रेप आरोपी के नजरिए से बनी है


सेक्शन 375 हिंदी सिनेमा की शायद पहली ऐसी फिल्म है जो रेप के आरोपों में इंटेंशन खोजने की कोशिश करती है... बगैर इस बात से डरे हुए कि उस पर स्‍त्री विरोधी होने का ठप्पा लगने के साथ-साथ वह रेपिस्ट के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर रखने वाली फिल्म के रुप में भी दर्ज की जाएगी।

सेक्‍शन 375 रेपिस्ट मानसिकता को जस्टीफाई करने की कोशिश नहीं करती लेकिन वह इस बात को कहने का इरादा जरुर रखती है कि रेप और यौन शोषण का हर आरोप जरुरी नहीं कि हर बार सही ही हो। इस आरोप की कुछ 'दूसरी वजहें' भी हो सकती हैं। फिल्म उन दूसरी वजहों में घुसने की खतरनाक कोशिश करती है।
फिल्म मानती है कि रेप की सजा इतनी कठोर है, उसके लेकर कानून इतने एकपक्षीय हैं कि कई बार उन कानूनों का प्रयोग अपने 'दूसरे सेटलमेंट' के लिए भी किया जा सकता है। ऊपरी तौर पर सेक्‍शन 375 एक थ्रिलर कोर्टरुम ड्रामा है, लेकिन अंदर घुसने पर आप पाएंगे कि यह फिल्म हाल ही में ट्रेंड हुए मीटू मोमेंट को काउंटर करने के लिए बनाई गई है। पूरे मीटू अभियान पर इसे पीड़ित पुरुषों की तरफ से आए पक्ष के रुप में भी देखा जा सकता है।

अजय बहल के निर्देशन वाली यह फिल्म कई लोगों को विकास बहल की असल जिंदगी पर बनी फिल्म लग सकती है। विकास बहल पर उस समय मीटू का आरोप लगा था जब वह सुपर हिट वेब सीरिज सेक्रेड गेम्स के पहले पार्ट के बाद दूसरे पार्ट की शूटिंग कर रहे थे। आरोप के बाद विकास को उस प्रोजेक्ट से अलग कर दिया गया था। विकास अभी कुछ समय पहले बरी हो गए हैं।

अकेले विकास नहीं कई सारे फिल्मी दुनिया के लोग इन आरोपों से बरी हुए हैं। आरोप लगने की खबरों पर प्राइम टाइम हुए, स्पेशल सेप्‍लीमेंट छपे लेकिन बरी होने की खबरें सिंगल कॉलम में सिमट गईं। मीटू के सबसे ज्यादा आरोप भी फिल्म इंडस्ट्री से ही आए थे। यहां पर यह जानना जरुरी है कि अजय बहल और विकास बहल भाई-भाई नहीं हैं। वैसे ही जैसे मोहनीश बहल इन दोनों के ताऊ नहीं हैं। और कनू बहल इसमें से किसी के कजिन नहीं हैं।

घटनाओं को जर्नलाइज करके देखने वाली महिलाओं को एक झटके में यह फिल्म महिला विरोधी लग सकती है। यह तर्क आ सकता है कि यह फिल्म उन लड़कियों के खिलाफ खड़ी है जो कुछ एंबीसन और सपने रखती हैं।आगे बढ़ने के लिए उनका एप्रोच पर कई बार कंजरवेटिव ना होकर लिबरल और प्रै‌क्टिकल होता है। लिबरल शब्द तलवार की धार जैसा है। इसका मिस इंटरप्रिटेशन हमेशा से होता आया है, लोग अपने अनुसार इस दोहरा उपयोग करके गिरते गिराते रहे हैं।

फिल्म का बैकड्रॉप एक मशहूर निर्देशक और एक कॉस्ट्यूम डिजाइनर के बीच बने शारीरिक संबंध की कहानी पर आधारित है। आरोप यहां रेप का है। रेप करने वाला ताकतवर जमात का है और पीड़ित कमजोर वर्ग की। दोनों वर्गों का यह आर्थिक अंतर भी फिल्म में एक किरदार की तरह चला करता है। फिल्म इस बात को कहने की कोशिश करती है कि कई बार आपका प्रिवेल्जड होना भी एक बड़े तबके लिए आपके विरोध में खड़ा होने के लिए काफी होता है। फैसला आने से पहले ही रेप आरोपी के खिलाफ फेसबुक और ट्विटर पर हैशटैग बनकर ट्रेंड कर रहे होते हैं। मीडिया ट्रायल में उसे दोषी पाया जा चुका होता है।

इंटरवल तक यह फिल्म रेप की एक कहानी और उस पर हुए फैसले को दिखाती है। इंटरवल के बाद फिल्म चाहती है कि आप अपने को रेप पीड़ित से इमोशनली डिकनेक्ट करके दूसरे फैक्ट देखने की कोशिश करें। इन दूसरे फैक्ट में रेप का आरोपी कोई दूध का धुला इंसान नहीं है। वह दुनिया भर के ऐब रखता है। अपनी पत्नी को चीट करता है। एक नहीं कई सारी लड़कियों के साथ शारीरिक संबंध बनाता है। अपनी पोजिशन का उपयोग करते हुए उनकी आवाज दबाता है। लेकिन वह रेपिस्ट नहीं है। वह सेक्स करता है, रैंडम करता है, बिना इमोशनल कनेक्‍शन के करता है लेकिन सामने वाली की मर्जी से करता है, रेप नहीं करता।

फिल्म चाहती है कि न्यायालय उसके इन सब ऐबों पर उसे सजा दें ना कि रेप के आरोपों पर। फिल्म का क्लाइमेक्स इंडियन पीनल कोर्ट और भारत के ज्यूडीशिरी सिस्टम की सीमाओं पर व्यंग्य करता है। दो जजों की ज्यूरी इस बात को लेकर कन्वींस हो जाती है कि यहां पर रेप के आरोप बदला लेने की नियत से लगाए गए हैं लेकिन चूंकि सेक्‍शन 375 में इसको लेकर कुछ डिफाइन किया गया है इसलिए इसे रेप ही माना जाए। इस फिल्म को देखने के बाद उन लोगों को सुधीर मिश्रा की फिल्म इंकार भी देखनी चाह‌िए। ये मीटू मोमेंट के आने से पहले की फिल्म है। जो मर्जी से सेक्स और उसके बाद के आरोपों की कहानी को शानदार तरीके से कहती है।

अभिनय भी फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है। अक्षय खन्ना ग्रे शेड के किरदारों में कमाल लगते हैं। कानूनों को समझने वाले एक ग़ैरभावुक वकील के किरदार को उन्होंने शानदार निभाया है। रिचा चड्ढा अपनी इस फिल्म से साबित करती हैं कि उनकी अपनी सीमाएं हैं। रिचा की जगह यहां कोई और होता तो बेहतर करता। आमतौर पर ग्लैमरस रोल करने वाली मीरा चोपड़ा यहां रेप पीड़ित लड़की के किरदार में प्रभावित करती हैं। फिल्म का अंतिम डायलॉग कि 'हम जस्टिस के नहीं कानून के बिजनेस में हैं' देर तक आपके कानों में गूंजता रहता है। ये फ़िल्म देखी जानी चाहिए। देखने से ज्यादा इस पर चर्चा की जानी चाहिए...