Saturday, April 14, 2018

आजकल भी बेहतर इश्क हो सकता है, राजेश खन्ना को याद करने की जरूरत नहीं है...



इश्क और जर्नलिज्म का कभी कोई स्वर्णयुग नहीं रहा है। डिपेंड करता है कि आपको इश्क और ये दूसरा वाला काम करने का मौका किन हालातों में मिले। अमर प्रेम फिल्मों के दौर में भी लपंट किस्म के प्रेम होते रहे हैं और लंपट ठहराई गई इस पीढ़ी में अमर प्रेम की कहानियां भी रची जा रही हैं। अक्टूबर एक सो कॉल्ड प्रेम कहानी है। सो कॉल्ड इसलिए कि यदि आप उससे कनेक्ट होते हैं तो ये इश्क लगता है, कनेक्ट नहीं हो पातें तो एक कुछ बेमतलब के दृश्यों का दस्तावेज।

लड़की कोमा में है। कोमा की हालत में आईसीयू में पड़ी एक लड़की से इश्क हो सकता है? हां बिल्कुल हो सकता है। बिल्कुल हो सकता है वाली इसी फीलिंग को जूही चतुर्वेदी और सुजीत सरकार जस्टीफाई करने की कोशिश करते हैं। वो बहुत मेहनत नहीं करते। जबरिया कुछ भी नहीं। वो चाहते हैं कि आप मेहनत करें। आप वरुण धवन बने डैन की जगह पर खुद को खड़ा करें और शिवली से प्यार करके देखें। क्या आप प्यार कर पाते हैं?

सुजीत की एक और फिल्म पीकू की तरह ही इस फिल्म के पास कोई कहानी नहीं है। घटनाएं नहीं है। उत्तेजना और उसका स्खलन नहीं है। बस कुछ दृश्य हैं और उनकी बारीक डिटेलिंग है। बहुत अच्छा कैमरा वर्क है। और पर्दे पर एक सुकुन हैं। सुकून ऐसा कि अक्टूबर फिल्म देखकर निकला दर्शक तुरंत ही पार्किंग के लिए या ट्रैफिक में ओवरटेक या गलत कट के लेने के लिए किसी से झगड़ा नहीं कर सकता। फिल्म देखने के बाद मन चुप हो जाता है और एकांत तलाशता है।

वो दर्शक जो सिनेमा से कुछ बेसिक जरुरतें पूरी होते देखना चाहते हैं। अपने लगाए हुए टिकट पैसों के बदले भरपूर मनोरंजन और एक कल्पनाई फंतासी दुनिया में जाना चाहते हैं अक्टूबर उनको निराश कर सकती है। ऐसे दर्शक पूरी फिल्म अब कुछ होने वाला है कि फीलिंग के साथ जीते हैं और आखिरकार बिदा हो जाते हैं। वो बाद में इंतजार करते हैं उस रिपोर्ट को जो बताती है कि अक्टूबर फ्लॉप हो गई।


अक्टूबर सिर्फ हीरो-हीरोइन की कहानी नहीं है। होटल और अस्तपताल की दुनिया के साथ-साथ फिल्म तमाम सारे किरदारों पर भी बात करना चाहती हैं। शिवली और डैन की मां, शिवली के अंकल, होटल में डैन के बॉस उसकी फीमेल कलीग, उसका दोस्त ये सब सिनेमाई किरदार नहीं थे। ये सब हमारे आसपास के लोग हैं जिन्हें फिल्मों के कैमरे ने कभी डिकोड करने की कोशिश ही नहीं की। हीरोइन की दोस्त सोचती क्या है सिनेमा के पास इसे अंडरलाइन करने की कभी फुर्सत नहीं रही है। अक्टूबर के पास ये फुरसत है। शायद ये फुरसत इसलिए भी कि उसके पास बताने के लिए और कुछ है भी नहीं। हम किरदारों से इतना कनेक्ट हो जाते हैं कि वो हमें कहीं मिल जाएं तो हमें उनके पास जाकर पूछने का मन होगा कि उन्होंने आखिर ऐसा क्यों किया था?

अक्टूबर एक डरावना प्रयोग है। सिनेमा में जहां फिल्मकार एक-एक मिनट को रंगीन और जवां बना देने की जीतोड़ कोशिश करते हैं। सुजीत का कैमरा कोहरे में डूबी दिल्ली की सुबह दिखाने में व्यस्त है। उसे होटल के बगल से मेट्रो को गुजरता दिखाने में आनंद आता है। हरश्रंगार के गिरते फूलों में  उसे दिलचस्पी है।अस्पताल के आईसीयू वार्ड, डॉक्टर के कनवरशेसन और वहां की नर्स की जिंदगी को भरपूर दिखा देने की जानलेवा चाहत है। इस बात की परवाह किए बगैर की एक घंटे के बाद भी फिल्म की कहानी वहीं की वहीं हैं और दर्शक एक प्रेम कहानी देखने आया था। उसे नहीं पता था कि फिल्म की हीरोइन बाल मुंडवा के आईसीयू में लेटी हुई मिलेगी।


फिल्म में जिस किस्म का सेंस ऑफ हयूमर है अब ये बाजारों में नहीं मिलता। जो चीजें नहीं बिकती दुकानदार उन्हें रखना बंद कर देते हैं। सुजीत के लिए ये चीजें जूही ने जुटाई हैं। छोटे-छोटे दृश्यों में हल्का सा हास्य हमें हंसा देता है। ये वाली हंसी डेविड धवन, नीरज वोरा, प्रियदर्शन की हंसी से अलग होती है। हम बहुत तेज नहीं हंसते और बहुत देर तक नहीं हंसते। लेकिन जो हंसते हैं वो याद रहता है।

अक्टूबर अपेक्षाओं के बोझ से दबी हुई फिल्म थी। सुजीत पिछले कुछ समय में अलग लेवल पर का एक बहुत अच्छा सिनेमा रच रहे थे। अक्टूबर जैसी फिल्में तभी दिमाग में आती हैं जब आप पूरी तरह से आत्मविश्वास से भरे हुए हों। सुजीत की बाकी फिल्मों से तुलना करने पर ये फिल्म थोड़ी कमजोर है। कमजोर इसलिए नहीं कि ये अक्टूबर है। अक्टूबर जैसी फिल्में तो एकबार ही बनती हैं। ना उसके पहले बनी होती हैं और ना बाद में बनेंगी।

2 comments:

  1. बेहतरीन क्या गजब लिखा है.....अंत में बेजोड़...अक्टूबर कमजोर इसलिए है कि यह पहली और आखिरी कोशिश है...

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  2. सुकून ऐसा कि अक्टूबर फिल्म देखकर निकला दर्शक तुरंत ही पार्किंग के लिए या ट्रैफिक में ओवरटेक या गलत कट के लेने के लिए किसी से झगड़ा नहीं कर सकता। फिल्म देखने के बाद मन चुप हो जाता है और एकांत तलाशता है।

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