Friday, November 9, 2018

विजय कृष्ण आचार्य के हाथ काट लेने चाहिए, वह मना करें तो उनका लिंग काट लेना चाहिए


ठग्स ऑफ हिंदुस्तान दरअसल बहुत बुरी फिल्म नहीं है। दरअसल ये एक निर्देशक की सिनेमाई लिमिटेशन की कहानी है। ऐसा लगा है कि कोई अपना पैर अलग-अलग साइज के दूसरों के जूतों में डालकर चलने की कोशिश कर रहा है। चलने में कभी जूता आगे घिसक जाता है तो कभी पांव। ठग... जैसा बचकानापन जीवन में भी होता है। एक आदमी जब अंदर से बिलो एवरेज होकर पैसों के दम पर बड़ा  दिखना चाहता है तो वह अपने उन कॉम्पलेक्स को महंगे लिबास, महंगी विदेशी घडियों,  लग्जरी गाड़ियों या फोर बेड रुम  फ्लैट से ढकने की कोशिश करता है। वह आपको महंगी विदेशी शराब ऑफर  करता हूं लेकिन उस शराब दो घूंट निगलने के बाद जब वह बोलता तो उसकी कलई घुल जाती है। उसका सतहीपन उभरकर उतराने लगता है।

एक फिल्माकर के  तौर पर यही खालीपन विजय कृष्ण आचार्य निर्देशित ठग्स ऑफ हिंदुस्तान के हर सीन में दिखता है। वह अपनी सीमाओं और बचकानेपन को बडे सितारों के आभामंडल, वीएफएक्स तकनीक, बड़े-बड़े सेट से ढकने की कोशिश करते हैं। हर एक सीन में जहां इमोशन दिखने चाहिए, किरदार के लेयर्स दिखने चाहिए उन्होंने उसे बस वैसे ही ड्रामेटिक बना दिए जैसे स्टार प्लस में आने वाले धारावाहिकों के सीन। जहां आप किसी किरदार से कनेक्ट नहीं हो पाते बस उसे होते हुए देखते रहते हैं। चूंकि वहां ब्रेक होते हैं, एपीसोड की लेंथ 22 मिनट की होती है इसलिए आप उसे झेल लेते हैं लेकिन तीन घंटे की फिल्म को लगातार झेलना कठिन हो जाता है। आपका मन करता है कि आप यहां से निकल जाएं और फील करें कि आपकी रियल दुनिया उतनी बोरिंग नहीं है जितनी की ये फिल्म।

कई जगहों पर ये फिल्म कॉमेडी की तरह होती है जो निर्देशक की नजर में भव्य एक्शन होता है। अमिताभ बच्चन बहुत बुजुर्ग आदमी के मेकअप में हैं। चेहरे पर इतनी घनी दाढी है कि समझ में नहीं आता कि आवाज कहां से निकल रही है। वह एक लडकी के साथ कुछ कुछ देर में अंग्रेजों के जहाज लूटने लगते हैं। लडकी की अपनी एक अलग कहानी है। वह हर समय गुस्से में होती है। जब वह युद्व नहीं भी कर रही होती है, शाम को समंदर की तरफ निहार रही होती है तब भी वह उतनी ही नाराज दिखती है।  नाराजगी ऐसी की जैसे मम्मियां गुस्से वाला मुंह बनाकर बच्चे को डराएं और बच्चा डर के मारे दूध पीले। उधर अमिताभ जब वह युद्व के लिए जा रहे होते हैं तो एक चील या बाज जैसा कोई जीव उडकर आने की दस्तक देता है और एक खास तरह की आवाजें बैकग्राउंड से निकलने लगती है। ऐसा 90 दशक की कई घटिया फिल्मों में दर्शक देख चुके होते हैं।

गुस्से वाली ये लडकी है हर बार एक तरह से फिसलकर तीर चलाती है। अमिताभ मुंह से भें भें की आवाज निकालते हैं और सामने वााले जहाज में गोले बरसने लगते हैं। जब गोले फूटने लगते हैं तो वह हेया हेया जैसी आवाज दो बार निकालते हैं। जहाज लूटने के ये सीन फिल्म में कई बार हैं। अमिताभ बच्चन हर बार वैसा ही करते हैं। लाल पोशाक पहने कंपनी के सैनिकों की भर्ती की जांच होनी चाहिए। उनको भर्ती किसने किया था? उन्हें कभी भी कोई भी मार सकता है। एक नॉन प्रोफेशनल सैनिक भी सात से आठ लाल कपडों वालों को मार देता है। वह किसी को मार रहे हैं ऐसा फिल्म में कभी नहीं दिखाया गया है। लंदन को इस फिल्म पर ऐतराज जताना चाहिए।

मजे की बात ये है कि अमिताभ अपना गिरोह छिपाकर रखते हैं तो जहाज लूटकर वह करते क्या हैं। वह खुद भी जहाज से चलते हैं लेकिन कई बार वह नाव से भी चलते हैं। लडकी के विपरीत अमिताभ जहाज लूटने के बाद शांत हो जाते हैं। और शाम को बंजर जमीन में खेती करने लगते हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स हास्यास्पद है। आचार्य जी 2018 में आप जहर वाले लडडू खिलाकर सैनिकों को बेहोश करता हुआ दिखाओगे? फिल्म बनाने का आपका लाइसेंस क्यों न रदद कर दिया जाए। आपके हाथ क्यों ना काट लिए जाएं और आप मना करें तोआपका लिंग क्यों ना काट लिया जाए?

आपको आमिर खान को वेस्ट करने में भी शर्म आनी चाहिए। साथ में फातिमा सना शेख को भी। इनकी दंगल देखिए और आठ दस बार देखिए। हो सकता है कि शूटिंग के बाद आमिर हंसते रहे हों कि वह कर क्या रहे हैं। लेकिन उन्हें ये भी पता था कि दीवाली वीकेंड में  ये फिल्म उनके कैरियर की सबसे बडी फिल्म बनने वाली है। आपने कैटरीना कैफ को बहुत सेक्सी दिखाया है। उनसे एक्टिंग नहीं करवाई है। ये आपका एकमात्र ठीक काम है। उनको देखकर कंपनी के सैनिकों के साथ साथ दर्शकों का भी मन सेक्स करने का हो सकता है।

सिनेमा में कहानी कुछ नहीं होती। वह हमेशा एक पेज  की होती है। निर्देशक और लेखक की ताकत इस बात में होती है कि कैसे उस एक पेज की कहानी को 100 पन्नों की पटकथा में बदलें। उन पन्नों में किरदार हों, सीन हों। कहानी उसमें एक स्वेटर की तरह बुनी हो जिसमें कंधा भी हो, बांह भी। पेट और पीठ भी। ठग्स ऑफ हिंदुस्तान में ऐसा कुछ  भी नहीं है। इस फिल्म के बाद विजय कृष्ण आचार्य बस उस जमात में आकर खडे हो जाते हैं जहां प्रभुदेवा,  साजिद वााजिद,  साजिद खान,  अभिनव कश्यप, शिरीष कुंदर  जैसे जैसी घटिया निर्देशक पहले से खडे हुए होते हैं। जब आप ये लाइन पढकर  होंगे उस समय इस फिल्म के सबसे जल्दी सौ करोड कमाने की खबरें भी आ चुकी होंगी। एक सप्ताह बाद आप इस फिल्म की सक्सेज पार्टी की तस्वीरें भी दिखेंगे। भारतीय सिनेमा को अभी और जलील होना है...

2 comments:

  1. बेहतरीन और ईमानदार समीक्षा

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  2. आपके हाथ क्यों ना काट लिए जाएं और आप मना करें तोआपका लिंग क्यों ना काट लिया जाए?" Purantah aappatijanak Hain . Baaki aapney acha aur saafgoi se likha ,aagey bhi likhtey rahein aisi kaamna Hain.

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