Wednesday, August 3, 2011

अच्छे विषय का हास्यास्पद फिल्मांकन

फिल्म समीक्षा: गांधी टू हिटलर




रायपुर के पांच में से तीन मल्टीप्लेक्सों में यह फिल्म ४ शो में चल रही है। औसतन हर शो में १० दर्शक आ रहे हैं। यानि कि कम से कम ४० दर्शक गांधी टू हिटलर को देखने के लिए रोज आ रहे हैं। इन ४० दर्शकों में से अधिसंख्य को पहले से पता है कि फिल्म में कोई नायक-नायिका नहीं है, गीत-संगीत नहीं है, कॉमेडी नहीं है, एक्शन नहीं है, द्विआर्थी संवाद नहीं हैं और बोल्ड सीन नहीं है। यानि की एक परंपरागत मसाला फिल्म जैसा कुछ भी नहीं। जो दर्शक फिल्म के आ रहे हैं उन्हें वाकई गांधी और हिटलर जैसे चर्चित नायकों से जुड़ा कुछ जानने में दिलचस्पी है। ऑफबीट फिल्मों पर औसम से कम दिलचस्पी और समझ रखने वाले इस शहर में भी एक ऐसी नई पीढ़ी विकसित हो रही है जो गंभीर और लीक से अलग हटकर बनी फिल्मों में दिलचस्पी लेती है। गांधी टू हिटलर देखने वाले दर्शकोंं में भी ज्यादातर युवा थे। जिस फिल्म को भीड़ न देख रही हो उसे देखना एक ब्रांड के रूप में भी उभरा है। यह प्रयोगात्मक फिल्म उद्योग के लिए अच्छा संकेत है। अब यहां जिम्मेदारी फिल्मकार बनती है कि कैसे वह आए हुए इन१० दर्शकों का आना जस्टीफाई करे। और कोशिश करे कि कम से कम यह १० अगली फिल्म में फिर आएं। कैसे वह एहसास कराए कि वह दर्शक कुछ अलग और नया देखकर गए हैं। और क्यों उन्होंने सिंघम, जिंदगी न मिलेगी दोबारा, हैरी पॉर्टर जैसी फिल्मों के विकल्प रहते गांधी टू हिटलर का चुनाव किया। गांधी टू हिटलर के पास इन किसी क्यों का जवाब नहीं है। निर्माता-निर्देशक फिल्म को बनाता तो अपने नजरिए से है पर वह होती है दर्शक के लिए। फिल्म देखकर लगा कि निर्माता अनिल कुमार शर्मा और निर्देशक राकेश रंजन यह फिल्म सिर्फ अपने लिए बनाई है। चलो फिल्म बनाते हैं जैसा। इन फिल्मकारों की फिल्में से जुड़ी सीमित जानकारी और कूपमंडूकपन पूरे फिल्म में चीखता रहा है। फिल्म के कुछ दृश्य ऐसे हैं जिन्हें फिल्माते वक्त निर्देशक ने सोचा होगा कि ऐस दृश्य फिल्म में बहुत जरूरी हैं वह पहली बार ऐसे दृश्यों को फिल्मों में जगह दे रहे हैं।
गांधी टू हिटलर में तीन कहानियां समांतर चलती हैं। पहली हिटलर और जर्मनी की। दूसरी गांधी और उनके उपदेशों की और तीसरी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज के कुछ साथियों और उनके परिवारों की। फिल्म में जहां-जहां हिटलर से जुड़े दृश्य आए हैं दर्शकों का उनसे जुड़ावा होता है। युद्ध में डूबे हुए जर्मनी को उबारने में लगे हिटलरी कोशिशों को अधिक से अधिक जानने की दिलचस्पी उनमें लगातार बनी रहती है। यह दृश्य थोड़ी देर चलते है कि पर्दे पर उपदेश देते गांधी आ जाते हैं। इन दृश्यों में वही शिक्षाएं हैं जो भारत का हर बच्चा कक्षा तीन-चार से ही नैतिक शिक्षा से जुड़ी किताबों मेें पढ़ता आया है। यह दृश्य बहुत ही घटिता तरीके से फिल्माए गए हैं। फिल्म का सबसे खराब हिस्सा आजाद हिंद फौज की एक टुकड़ी की कहानी का है। इस कहानी से जुड़े महाघटिया और उबाऊ फ्लैशबैक हैं। शादी और होली के दृश्य हैं। इस टुकड़ी के सैनिकों का आपस में झगडऩा और समझाने के बाद एक-दूसरे के लिए जान न्योझावन कर देना। सब कुछ बहुत बचकाना और नानसेंस सा। फिल्म में हिटलर का किरदार रघुवीर यादव ने निभाया है और उनकी प्रेमिका नेहा धूपिया बनी हैं। फिल्म इतनी हास्यास्पद है कि हिटलर और उनकी प्रेमिका सहित पूरे जर्मनी का उर्दू मिश्रित ठेठ हिंदी बोलना भी व्यंग्य पैदा नहीं करता। एक अच्छे विषय की महादुर्गति देखने के लिए फिल्म देख सकते हैं। अच्छे फिल्मकारों की हिटलर और द्धितीय विश्वयुद्ध में भारत की भूमिका जैसे विषयों पर फिल्म बनानी चाहिए।

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