Friday, March 2, 2012

नायक, नायक तभी बनता है जब खलनायक हो

फिल्म समीक्षा: पान सिंह तोमर



आमिर खान के मरहूम पिता ताहिर हुसैन साहब एक बड़े फिल्म निर्माता थे। हुसैन साहब के पास जब कोई निर्देशक फिल्म की स्क्रिप्ट के साथ आता तो वह उससे बड़े इत्मिनान से पूंछते कि मियां बताओ की आप की कहानी उठती कहां से है, तनाव कहंा हैं और तनाव स्खलित कैसे होगा। तिंग्माशु धुलिया यदि पान सिंह तोमर की स्क्रिप्ट लेकर ताहिर साहब के पास जाते तो ताहिर साहब शायद यह कहते दिखते कि और तो ठीक है मियां पर आपकी फिल्म में तनाव फिल्म खत्म होने के ३५ मिनट पहले ही स्खलित हो गया है। आगे की फिल्म दर्शक क्यों देखेगा। तिंग्माशु धूलिया की इस महात्वाकांक्षी और भव्य फिल्म की एकमात्र खराबी यह है कि इंटरवल के १५ मिनट बाद फिल्म अपना चार्म खो देती है। आमतौर पर फिल्मों में नायक का इंतकाम फिल्म के आखिरी रील में पूरा होता है। आखिरी रील से पहले उस इंतकाम तक पहुंचने की पटकथा बुनी होती है। पान सिंह तोमर में नायक के पास इतना बड़ा अवरोध नहीं है कि वह उसे एक हीरो के रूप में खड़ा कर दे। जिस अवरोध को दर्शक अवरोध मानते हैं वह फिल्म खत्म होने के करीब ३५ मिनट पहले बहुत ही साधारण तरीके से खत्म हो गया होता है। एक धावक के डाकू बनने की कहानी असाधारण है पर डाकू बन जाने के बाद उसके मरने तक की कहानी भटकी हुई। यह इरफान का अभिनय और संजय चौहान के संवाद ही थे कि खत्म होने से पहले खत्म हो चुकी इस फिल्म को पूरा करने के लिए दर्शक सीट पर बैठे रहते हैं। थोड़ी ईमानदारी से कहें तो इस बार संजय चौहान भी अपने संवादों में वैसा जाूद नहीं घोल पाए जैसा उन्होंने साहब बीवी और गैंगस्टर में किया था। तिंग्माशु की पिछली दो फिल्मों शार्गिद और साहब बीवी के उलट इस फिल्म में उतराद्र्ध के बाद नाटकीय घटनाक्रम भी नहीं रहे। पान सिंह तोमर एक भव्य फिल्म है पर यह फिल्म, फिल्म होने की कई सारी शर्ते नहीं पूरी करती। अपने पिता की कथित असफलता को परिभाषित करते हुए आमिर खान ने एक बार कहा था कि निर्देशक को बाजार के प्रति उतना ही जवाबदेह होना चाहिए जितना कि वह अपनी कला के प्रति होता है।

1 comment:

  1. सत्य जीवन पर आधारित कहानियों में बहुत कुछ चाहकर भी नहीं किया जा सकता। हां मोटा-मोटी फिल्मी कसौटियों का ख्याल तो रखा ही जा सकता था। फिल्म को पत्रकार की मुलाकात से 70 और 30 के अनुपात में बांटा है। इसमें 70 पत्रकार के साथ साक्षात्कार में बयां किस्सा है जो रोचक और बांधे रखने वाला है। दूसरी हिस्सा कठिन है। जो पत्रकार के साक्षात्कार के बाद का है। दरअसल शत्रु के रूप में दिखाए गए भाई बांधव बुंदेलखंड और यूपी के पूर्वांचल में आम बातें है। इसलिए इस दुश्मन को बड़ा भारी भरकम बनाया भी नहीं जा सकता था। और डाकू बनने के लिए यह पर्याप्त वजह भी नहीं थी। हां चूक हुई है कि सिस्टम के खिलाफ जो माहौल है उसे निर्देशक खलनायक के रूप में नहीं रख पाए।

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