Saturday, August 17, 2013

'दीवार' में नवीन निश्‍चल = 'वंस' में अक्षय कुमार

यश चोपड़ा जब 'दीवार' बना रहे थे तो उनके मन में इस फिल्म के लिए नवीन निश्चल और राजेश खन्ना के नाम थे। यह तय नहीं हुआ था कि छोटा कौन होगा और बड़ा कौन। फिल्‍म की स्क्रिप्ट सलीम-जावेद के पास थी। जब स्क्रिप्ट पूरी हुई तो सलीम और जावेद को महसूस हुआ कि बड़े भाई के रोल के लिए अमिताभ बच्चन फिट होंगे और छोटे के लिए शशि कपूर। यश चोपड़ा मान गए। इसके बाद अमिताभ और श्‍ाशि भी। दीवार आपके सामने है। कल्पना कीजिए जिन संवादों को अमिताभ बच्चन ने बोला था उन्हें नवीन निश्‍चल या राजेश खन्ना अपने चिरपरिचति अंदाज में बोल रहे होते। "जाओ पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ"। इस संवाद को पहले राजेश खन्ना के मुंह में डालकर देखिए फिर नवीन के। फिल्म का यह चेहरा सोचकर ही घबराहट होती है।

जो गलती यश चोपड़ा करते-करते बच गए थे वही गलती मिलन लूथरिया ने वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई दोबारा में कर दी है। इस बार रजत अरोड़ा ने उन्हें रोका भी नही। वह सिर्फ इस खुमार में जीते रहे कि उनके लिखे डायलॉग इतने दमदार हैं कि वे किसी से भी बोलवा लिए जाए फिल्‍म में समां बांध देंगे। वंस अपान एक के बाद एक कई गलतियां करती है। पहली गलती कहानी की। आप एक ऐसे गैंगस्टर को क्लाइमेक्स में सड़क पर फाइट करते नहीं दिखा सकते जो भारत का मोस्ट वांटेड अपराधी हो। बची कसर गैंगस्टर के प्यार में पड़ जाने के बाद पूरी हो जाती है। पर फिल्म खराब इसलिए नहीं क्योंकि वह अतार्किक है।

अगर तार्किकता की वजह से भारत में फिल्में फ्लॉप होतीं तो जब तक है जान तीन करोड़ और चेन्नई एक्सप्रेस पांच करोड़ कमा रही होतीं। यानी कि मामला तार्किक होने या न होने का नहीं है। वंस अपॉन की मूल कमजोरी पात्रों को गलत तरीके से चुनकर उन्हें पर्दे पर पेश करने का है। उम्दा अभिनेता अक्षय कुमार गैंगस्टर की एक बिना मतलब वाली बॉडी लैंग्वेज के साथ पूरी फिल्म में डायलॉग डिलवरी करते रहे। समझ ही नहीं आता कि वह कब गुस्सा हैं और कब अपना सेंस ऑफ ह्रयूमर पिद्दी से नायक पर बखार रहे हैं। मिलन लूथरिया को यह बात शायद एडटिंग टेबल पर भी समझ नहीं आई कि ‌सिर्फ अक्षय कुमार के मुंह में अच्छे संवाद ठूस कर उगला देने से वह गैंगस्टर नहीं लगेंगे।

इससे बुरा हाल छोटे गैंगस्टर का रहा है। इमरान खान से फिलहाल जाने तू या जाने न और एक मैं हूं और एक तू जैसी फिल्में ही करायी जा सकती है। विशाल भारद्वाज की फिल्म मटरू की बिजली का मनडोला यदि एक बड़ी फिल्म नहीं बन पाती है तो उसकी कमजोर कड़ी इमरान खान हैं। मटरू या वंस अपॉन जैसे रोल के लिए इंडस्ट्री के पास बेहतर अभिनेता हैं। वह ऐसा अभिनेता हैं जो शायद सिर्फ इन्हीं भूमिकाओं के लिए फिल्मों में बने हुए हैं।

सोनाक्षी सिन्हा इन दोनों से इसलिए बेहतर लग जाती हैं क्योंकि उनका किरदार उनके रोल के आसपास का था। यदि आप एक मैं हूं और एक तू फिल्म में करीना को हटाकर सोनाक्षी को कर दें तो उनकी भी हालत वंस अपॉन के इमरान जैसी हो जाएगी। अच्छे से अच्छा संवाद हमें तब अखरने लगता है जब उसके लिए खराब चरित्र चुना जाए। यही फिल्म के साथ लगातार होता है। यह फिल्म अपनी मिसमैच कॉस्टिंग के लिए हमेशा याद रखी जाएगी। साथ ही यह फिल्म ऐसी फिल्म के रूप में भी याद की जाएगी जिस फिल्म के पास हीरो था ही नहीं। था तो बस विलेन, नायिका और विलेन का हेल्पर।

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