Monday, January 13, 2014

आपको भी रह-रहकर याद आती हैं डर-डर के देखी गईं ये फिल्में




मन तो दसवीं क्लास से ही ऐसी फिल्मों को बस देख डालने का हुआ करता था। घर और स्कूल के आसपास दीवारों पर इन फिल्मों के बड़े-बड़े पोस्टर लगते। इन पोस्टरों में एक मोटी सी लड़की नहाने जैसा कुछ उपक्रम कर रही होती। इनसेट में एक पुरुष लड़की के साथ कुछ करने की कोशिश में होता और एक इनसेट चुंबन जैसा कुछ दृश्यदिखा रहा होता। कई बार कोई भूत भी लड़की को डराता और लड़की ब्लाउज पहनकर डरने की ऐक्टिंग कर रही होती। पोस्टर देख मन लगातार मचलता। लेकिन उन दिनों फिल्म देखना ही संज्ञेय अपराध में शुमार था। फिर ऐसी फिल्म देखना के बारे में सोचना ही रुह कंपा देता। 

वक्त बदला, गंगा में कुछ और पानी बहा। फिर वह समय भी आया जब इन फिल्मों के लिए साहस जुटाने का साहन होने लगा। साहस इन पोस्टरों की वजह से ही हुआ। जुर्म करने की प्रेरणा इन फिल्मों के नामों ने दी। कच्ची जवानी, बरसात में जवानी, रंगीली भाभी, जवान साली जैसे नामों वाली यह फिल्में अंतश्‍ा तक कोहराम मचा रहीं थीं। इसके लिए कोई भी बगावत करने का मन हुआ।

12वीं की परीक्षाओं के लगभग दो महीने पहले की बात है। दोपहर हो जाने के बाद कोहरा छटा नहीं था। स्कूल के कोई ट्रस्टी मर गए थे जिसकी वहज से कांडोनेंस हुआ। मेरे कुछ मित्र फिल्म देखने का कार्यक्रम पहले ही बना चुके थे। यह वह मित्र थे जो लंबे समय से ऐसी फिल्में देख रहे थे और अब इस अपराध बोध से उबर भी चुके थे।

मैने उनको दबी जुबान में फिल्म देखने की इच्छा जताई थी। जहां तक मुझे याद आ रहा है फिल्म का नाम दूधवाली था। मैं होशियार था कि कहीं दूधवाली देखने की इच्छा मेरी इमेज पर प्रश्न न खड़े कर दे। पर वह मेरे सही मायने में दोस्त थे। उन्होंने मुझ पर अपराध बोध हावी नहीं होने दिया। उन्होंने ऐसा जताया कि मैं जय संतोषी मां या बार्डर सरीखी कोई फिल्म देखने जा रहा हूं। मुझसे मेरे हिस्से के 12 रुपए मांगे गए। मुझे संक्षेप में वहां पहुंचने का प्लान बताया गया। मैं सुन सबको रहा था लेकिन मेरे दिमाग से दूधवाली हट नहीं रही थी। हम साइकिलों से शार्टकर्ट रास्तों से दूधवाली फिल्म दिखाने वाले सिनेमाघर में पहुंच चुके ‌थे।

जैसे कि इन दिनों दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल मफलर बांधते हैं वैसे कई केजरीवाल चेहरे को मफलर से कसे हुए सिनेमाहॉल की लॉबी में टहलते पाए गए। सभी उत्साहित थे और लगभग सभी घबराए हुए। दर्शकों की संख्या 25 से 30 की थी। यहां मुख्य रूप से तीन तरह के लोग थे। एक हम जैसे स्कूली और कॉलेज के लड़के, दूसरे रिक्‍शे और ऑटो वाले और तीसरे अधेड़। सभी एक-दूसरे को भरपूर सम्मान दे रहे थे और कोई किसी की आंखों में झांक नहीं रहा था।

हम में से कुछ दर्शकों की अंर्ताआत्मा उन्हें यहां से चले जाने के लिए प्रेरित करती लेकिन यह दूधवाली का ही प्रताप था कि वह वहां जमे रहे। हम सभी ने 10 रुपए की दर वाले फर्स्ट क्लास के टिकट यह सोचकर लिए कि बैठना तो फैमिली में ही है। हम चार लोग तीन साइकिलों से गए थे। तीन रुपए साइकिल का किराया हुआ। लोग मुख्य गेट का शटर खुलवाने के परेशान थे। इसकी दो वजहें थीं पहली वजह दूधवाली की सम्मोहक बैठने की मुद्रा और दूसरा उन्हें बाहर टहलते हुए कोई भी देख सकता ‌था। करीब 12 बजकर 50 मिनट पर मुख्य गेट खुला।

गेट खुलते ही मेरे पेट में एक तरंग सी दौड़ गई। मुझे लगा कि मैं रोमांच के नए सागर में गोता लगाने जा रहा हूं। नए लोग तुरंत ही सिनेमाहॉल के अंदर घुसकर सीट लेने में उत्साहित दिखे पर कुछ अनुभवी हॉल के अंदर लगे छोटे-छोटे पोस्टरों में दूधवाली को करीब से देखने की कल्पना में थे। प्लानिंग के अनुसार हम फैमिली में ही बैठे और कोने की सीट लिया। पहलवान छाप साबुन के विज्ञापन के बाद फिल्म शुरु हुई। पूरे पर्दे पर नहीं बल्कि आधे पर्दे पर। फिल्म का कैनवास कुछ-कुछ साउथ का था। कुछ देर के बाद बालों से भरी पीठ, निकले हुए पेट और मूंछों वाले पुरुष एक मोटी लड़की का दमन कर रहे होते। दिखने को तो बस पुरुष की पीठ दिखती और उसका हिलना-डुलना दिखता। चूंकि पीछे से कुछ आवाजें आती रहतीं इसलिए मामला बहुत संगीन सा लगता रहा।
                                                                                                                    
                                                                                                                      जारी है...

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