Friday, July 12, 2019

सुपर 30: एक ऐसी फिल्म जिसे आप से ज्यादा आपके बच्चे का देखना जरूरी

एक मैथमैटिशियन के तौर पर मैं आनंद कुमार को नहीं जानता। आप शायद पहले से जानते रहे होंगे। मैं इसलिए नहीं जानता था क्योंकि मैंने इंजीनियरिंग का कभी कोई टेस्ट नहीं दिया। कहां की कोचिंग अच्छी और कहां की बुरी, किसकी फीस ज्यादा है और किसकी कम इन बातों तक पहुंचने का मौका ही नहीं मिला। मेरी जानकारी की हद में आनंद कुमार तब आए जब उन पर बनी फिल्म एनाउंस हुई।

फिल्म की चर्चाओं के साथ आनंद की कई सारी कहानियां भी बाहर आईं। ऐसा नहीं था कि निकली हुई इन तमाम कहानियों में सभी में वे हीरो थे। कुछ में वो ग्रे शेड में थे, कुछ में एक विशुद्व कोचिंग संचालक और कुछ में एक अहसान फरामोश झूठे आदमी।

  सुपर 30 फिल्म पर लिखते समय मेरी इस बात में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं है कि फिल्म में दिखाई गई आनंद कुमार की जिंदगी, उनकी असल जिंदगी से कितनी करीब या दूर है। मेरा वास्ता ना तो आनंद को एक हीरो के रूप में देखने में है और ना ही उनकी एचीवमेंट पर खोजी पत्रकारिता कर उसमें नुस्‍ख निकालने में। मैं सुपर 30 को ऐसी फिल्म के रुप में याद करना चाहूंगा जिसके खत्म होते होते आपकी आंखों के कोर गीले हो चुके होते हैं। आप आनंद जैसा बनना चाहते हैं और पाते हैं कि उनके जैसा बनना उतना भी कठिन नहीं है।

अगर यह फिल्म पूरी तरह से काल्पनिक होती और आनंद कुमार जैसा आदमी इस दुनिया में अस्तित्व भी ना रखता तब भी यह फिल्म उतनी ही अच्छी लग सकती थी। इस अच्छे लगने के पीछे किरदार की नियत और उसका परिश्रम ही है। मैं सुपर 30 को  एक ऐसी फिल्म के रुप में भी याद रखना चाहूंगा जो जिंदगी में एजुकेशन के महत्व को बहुत करीने से एस्टेबलिस करती हैं।

बॉलीवुड में ऐसी बहुत कम फिल्‍में बनी हैं जो एजुकेशन की ताकत को इतने दमदार और प्रभावकारी तरीके से रख सकें। फिल्म जाति व्यवस्‍था पर एक बने-बनाए ढांचे पर भी चोट करना चाहती है लेकिन अपनी असल ताकत वहां आनंद के प्रयासों पर लगाने में दिलचस्‍पी रखती है।

 हम और आप आज जहां पर हैं उसके पीछे की एकमात्र वजह हमारी शिक्षा ही है। मैं गहराई से मानता रहा हूं और अपने आस-पास महसूस भी करता रहा हूं कि अपनी मौजूदा जिंदगी के ब्रेकेट से निकलकर दूसरे ब्रेकेट में जाने के लिए एजुकेशन के अलावा और कोई रास्ता होता नहीं है।

दलित चिंतक बहुतेरे हो सकते हैं, लेकिन अंबेडकर इसलिए दलितों के सच्चे हितैषी कहे जाएंगे क्योंकि उन्होंने झंडा उठाने के बजाय किताब उठाने के लिए प्रेरित किया। सवर्ण हो या दलित एक पढ़ी लिखी जनरेशन ही अपने परिवार को गरीबी के दलदल से उबार सकती है।

 इसमें कोई शंका नहीं कि ये फिल्म अपने कई द्श्यों में सिर्फ एक फिल्म बन जाती है। वह अपने किरदार को कैसे भी हीरो जैसा एस्टेब‌लिस करने के लिए कई सारे ड्रामे रचती दिखती है। आनंद कुमार या कोई भी कोच‌िंग चलाने वाला टीचर इस तरह के चरित्र का नहीं हो सकता जैसा रितिक रोशन को फिल्म में दिखाया गया है। लेकिन फिल्म का सेंट्रल आइडिया ऐसा है जो ना तो हीरोइक और ना ही असंभव। सुपर 30 के कई सारे दृश्य शरीर के अंदर कुछ करने की ऊर्जा पैदा करते हैं यही फिल्म की एकलौती पर बड़ी कामयाबी है।

मैं या इन लाइनों को पढ़ने वाले शायद उस वर्ग के लोग नहीं है जो पढ़ना तो चाहते थे लेकिन जिनके घरों में पढ़ाने के लिए पैसे नहीं थे। हमसे से ज्यादातर लोग वो लोग नहीं थे जो बिना खाना खाए कई कई रात जगे हों। बावजूद इसके हम उन किरदारों के करीब पहुंच जाते हैं जो ऐसी जिंदगी जीने के लिए बाध्य हैं और उसे जी रहे हैं। निश्चित ही इन किरदारों का अभिनय इसके पीछे की बड़ी वजह रही होगी।

 फिल्म की लिखावट बहुत शानदार नहीं है, दो किरदारों के आपस के डायलॉग बहुत प्रभावित नहीं करते। विकास बहल का निर्देशन का स्तर क्वीन जैसा नहीं है लेकिन ये अच्छा लगा कि वह शानदार जैसी फिल्म से उबर आए। 

फिल्म के ट्रेलर में रितिक रोशन की बिहारी टोन बहुत खटकती है। फिल्म में भी उनकी भाषा और उनका लंबा-चौड़ा कसरती बदन हमें कई बार परेशान करता है। कई बार लगता है कि पोस्टमैन का यह लड़का अगर ठीक से अपना मुंह धो ले, जींस-टीशर्ट पहन लें तो वह ना तो उनके घर का लगता है ना ही उनके परिवेश का। इसमें कोई शक नहीं कि र‌ितिक ने इस फिल्म में कमाल का अभिनय किया है लेकिन उनकी अति गोरी त्वचा(जिसे फिल्म में अजीब तरह से काला किया गया है), हल्की भूरी दाढ़ी, जिम में तराशा गया बदन और नीली आंखे उनको एक शिक्षक बनने से कई बार मना कर देती हैं।

वह पुरानी, धुंधली सी चेक वाली गंदी कमीज पहनते हैं जिसे देखकर लगता है कि ये कपड़े इनके नहीं हैं, इन्होंने किसी से मांगकर पहने हैं। रितिक को शायद अपनी ये कमियां पता थीं। उन्होंने यहां पर गरीब होने के स्वांग को अपनी आंखों और बॉडी लैंग्वेज से पूरा करने की कोशिश की है। उनकी मेहनत इतनी अच्छी है कि हमें नकली बिहारी में नुस्‍ख निकालने का मन नहीं करता। पंकज त्रिपाठी अच्छी एक्टिंग के बाद भी एकदम गैरजरूरी लगे। ये रोल उन्हें नहीं करना चाहिए था।


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