Friday, September 13, 2019

डियर कॉमरेडः यदि आपको कबीर सिंह उर्फ अर्जुन रेड्डी पसंद है तो आपको इसे देखना चाहिए...


हिंदी सिनेमा की कई त्रासदियों में एक त्रासदी ये भी है कि यदि वो आज कॉलेज लाइफ, स्टूडेंट यूनियन, उनकी पॉलिटिक्स, पॉलिटिकल आइडियोलॉजी के मतभेद और उसके इर्द-गिर्द पनप रहे किसी प्रेम की कहानी को कहना चाहे तो उसके पास चेहरे ही नहीं हैं। मोहब्बत करने के लिए आलिया भट्ट तो हो सकती हैं लेकिन उनके लिए कॉलेज कौन जाए?

अधेड़ हो चुके शाहिद कपूर या अधेड़ हो रहे सुशांत सिंह राजपूत? टाइगर श्रॉफ कॉलेज जा तो सकतें हैं, अभी पिछली फिल्‍म में गए भी थे लेकिन वह वहां डांस कर सकते हैं, शरीर की नुमाइश कर सकते हैं, पॉलिटिक्स की लेयर्स या किसी आइडियोलॉजी के चेहरे नहीं बन सकते हैं। अर्जुन रेड्डी के बाद विजय देवरकोंडा की नई फिल्‍म डियर कॉमरेड देखकर लगता है कि साउथ का सिनेमा इस मामले में धनी है। उसके पास कॉलेज जाने वाले हीरो हैं जो इश्क भी अच्छा करते हैं और क्रांति भी।

अर्जुन रेड्डी और अब डियर कॉमरेड के जरिए विजय देवरकोंडा एक ऐसे हीरो की उम्मीद जगाते हैं जो टूटकर प्रेम करना भी जानता है, रुठना भी और प्रेमिका के सामने बिखर जाना भी। कबीर सिंह फिल्म का विरोध करने वाली गैंग को भी डियर कॉमरेड देखनी चाहिए और उन्हें भी जिन्होंने कई दशक तक शाहरुख को प्रेमिकाओं का ख्याल करने वाले हीरो के रुप में पहचाना है। विजय सरसो के खेत में बांहे फैलाकर अपनी प्रेमिका को नहीं भरते ना ही छूट रही ट्रेन में अंतिम समय में हाथ बढ़ाकर अपनी प्रेमिका का हाथ पकड़ते हैं, लेकिन वो जिस तरह से अपनी प्रेमिका को चाहते हैं, वैसा चाहा जाना हर लड़की का सपना हो सकता है। विजय सपनों के हीरो हैं...

डियर कॉमरेड, शुरूआत में कॉलेज यूनियन की पॉलिटिक्स करने वाले एक गुस्सैल नायक की कहानी लगती है। बाद में यह कहानी स्टेल लेवल पर क्रिकेट खेल रही उसकी प्रेमिका की कहानी बन जाती है, जहां नायक सिर्फ उसके अधूरेपन को भरने की कोशिश भर के लिए है।

फिल्म अपने नाम को बहुत जस्टीफाई करने की कोशिश नहीं करती। ना ही वह हॉर्डकोर कॉमरेड या पोलित ब्यूरो की पॉलिटिक्स में घुसना चाहती है। वह कॉमरेड होने के अर्थ को समझाती है पर बिल्कुल आसान भाषा में बिना राजनैतिक हुए...फ़िल्म में रूस और चीन के तमाम सारे कम्युनिस्ट नेताओं की तस्वीरें तो दिखती हैं पर उनकी आइडियोलॉजी को न बताया जाता है न ही ग्लोरीफाई किया जाता है...

यह शुद्घ रुप से एक प्रेम कहानी ही है। एप्रोच के लेवल पर दो अलग-अलग तरह के इंसानों की प्रेम कहानी। कई सारे अवरोधों में लिपटी हुई ऐसी प्रेम कहानी जिसके कुछ हिस्से इन्हीं डिफरेंट एप्रोच के चलते उधड़ जाते हैं और बाद में उन पर तुरपाई भी हो जाती है। इस कहानी के अवरोध कई बार फिल्मी तो लगते हैं लेकिन कुछ अच्छे और नए सीन इन्हें संभालते रहते हैं। फ़िल्म की कहानी एक लिनियर लाइन में नहीं चलती। अंत तक पहुंचने के पहले यह यहां-वहां की कई सारी बातें कहना चाहती है। जिसके मकसद यकीनन रुहानी हैं।

फिल्म का आखिरी हिस्सा बीसीसीआई के जोन क्रिकेट सिलेक्टर के द्वारा एक महिला क्रिकेटर के संग यौन शोषण की कहानी बन जाती है। यौन शोषण करने और उसके छिपाने का तरीका कमजोर है। लेकिन बाद में उसके खिलाफ उठ खड़े होने वाली लड़ाई अच्छी है। इस लड़ाई को लड़ने में दो अलग-अलग लोगों के एप्रोच का कश्माकस ही फिल्‍म की जान है। फिल्म के हीरो के पास अपनी फिलॉसिफी को कहने के लिए बहुत सारे डायलॉग आए हैं। हीरोइन को आखिरी में मौका दिया गया है। जहां उसके ऊपर खरा उतरने का दबाव होता है..

डियर कॉमरेड कई हिस्सों में सिर्फ सिनेमा लगने के साथ ही कई जगह मीनिंगफुल भी लगती है। निर्मल वर्मा की फंतासी और यथार्थ की मिली जुली दुनिया जैसी। फिल्म के गाने समझ में नहीं आते लेकिन सुनने में अच्छे लगते हैं। फिल्म अंग्रेजी सब टाइटिल के साथ अमेजन प्राइम में उपलब्‍ध है। इस फिल्म के पास इतने मसाले हैं कि जल्द ही इसके हिंदी रीमेक बनाने के अधिकार खरीद जा सकते हैं, आप यह फिल्म देख सकते हैं।

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