Friday, April 20, 2012
सामाजिक जिम्मेदारी दिखाते तो डाक्यूमेंट्री बन जाती फिल्म
फिल्म समीक्षा: विक्की डोनर
फिल्म विक्की डोनर का विषय ऐसा था कि यदि इसे निर्देशक थोड़ा सा सामाजिक चोला ओढ़ाते तो यह डाक्यूमेंट्री बन जाती। २०१० में ओनियर निर्देशत फिल्म आईएम का एक हिस्सा देख लीजिए। नंदिता दास वहां एक ऐसी लडक़ी की भूमिका में हैं जो डोनेट किए हुए स्पर्म से मां बनती हैं। लगभग २५ मिनट की उस कहानी में कहीें भी फिल्म नहीं है। है तो सिर्फ एक फिल्मकार की कुछ अलग हटकर सिनेमा बनाने की अघोषित जिम्मेदारी। आईएम से उलट विक्की डोनर बिल्कुल दूसरे धरातल की फिल्म है। यहां पर सामाजिक जवाबदेही के साथ दर्शकों के मनोरंजन के प्रति भी जिम्मेदारी है। फिल्म की रचना भारत के महानगरों के दर्शकों को ध्यान में रखकर की गई है। ताज्जुब नहीं कि देश के छोटे सेंटरों में यह फिल्म लगने के दो दिन बाद उतर भी जाए। पर यह फिल्म जिनके लिए बनाई गई है, पूरे मन से बनाई गई। इंटरवल के पहले तो खासतौर पर। थोड़ा बहुत फिल्म को समझने वाले दर्शक यह बात समझता थे कि फिल्म इंटरवल के बाद पटरी से उतरेगी। हास्य को जस्टीफाई करने के लिए जो सामाजिक जिम्मेदारियां दिखाई जाएंगी वह फिल्म की गति को रोक देंगी। ऐसा हुआ भी। फिल्म अपने शबाब पर वहां तक होती है जहां एक डॉक्टर नायक को स्पर्म डोनेट करने के लिए तैयार करता है। स्पर्म डोनेट करने की बात को समाज द्वारा खराब मानना और उसे फिल्मकार द्वारा सही ठहराना फिल्म का बाकी हिस्सा है। तो दूसरा हिस्सा ठहरा हुआ और फिल्मी है। निर्देशक सुजित सरकार को दोष इसलिए भी नहीं दिया जा सकता कि इस फिल्म को अंत करने के बहुत से विकल्प नहीं दिखते। अन्नू कपूर अपने पूरे कॅरियर की सबसे अच्छी भूमिका में हैं। कही से भी नहीं लगता कि यह आयुष्मान सिंह की पहली फिल्म है। चलताऊ अंग्रेजी मिश्रित पंंजाबी बोलना-सुनना अच्छा लगा है। खुशी इस बात की भी होती है कि ज्यादातर मसाला फिल्मों में काम करने वाले जॉन अब्राहम जब निर्माता बने तो उन्होंने ऐसी फिल्म चुनी तो मसाला तो बिल्कुल नहीं थी।
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