Monday, March 2, 2020

थप्पड़ मारने से ज्यादा बुरा है उसके लिए अपराधबोध ना होना है


किसी चीज का अपराधबोध होने के लिए उस चीज का पहले अपराध बनना जरुरी है। पुरुष बिरादरी के बहुत सारे अपराध इसलिए अपराध नहीं कहलाते क्योंकि समाज उन कामों को अपराध नहीं बल्कि पुरुषों की पहचान के तौर पर आइडेंटीफाई कर देता है। जब अपराध ही नहीं तो अपराधबोध कैसा। 'थप्पड़' की कहानी अपराध होने से ज्यादा अपराधबोध ना होने की कहानी है।

फिल्म में जिस शाम अम्‍मू(तापसी पन्नू) को भरी महफिल में पति विक्रम (पैवल गुलाटी) द्वारा थप्पड़ मारा जाता है उसी शाम की खत्म होती रात में वह पार्टी के लिए अस्त व्यस्त हुए फर्नीचर को ठीक करती है। फर्श पर फर्नीचर घिसटने की आवाजों से उसकी सास बाहर आती है। बहू से बिना किसी संबोधन के कहती है कि "सुनीता के आने का इंतजार कर लेती, उसकी मदद से करती"। सुनीता उस घर की नौकरानी का नाम है। कुछ घंटे के बाद पति सोकर उठता है। शराब के हैंगओवर से उसे सरदर्द है। वह नौकरानी से सरदर्द की दवा मांगता है। अम्मू से थप्पड़ की बात वह भी नहीं करता। यहां एक मर्द और एक औरत। एक पति की पेशे में है दूसरी सास के पेशे में। थप्पड़ मारे जाने की उस घटना में दोनों की प्रतिक्रियाएं एक जैसी हैं। इस घटना का अलग ना लगना, इसे यूं ही भुला देना बताता है कि हमें 'थप्पड़' फिल्म की जरुरत क्यों हैं। बाकी यह फिल्म समाज के जिस तबके तक पहुंच पाएगी वहां के बारे में ऐसा कह सकते हैं कि घरेलू हिंसा कम से कम उन हिस्सों से विदा हो चुकी है।

पितृसत्ता की ओट में पुरुष द्वारा किए गए अपराध कई बार इसलिए अपराध नहीं लगते क्योंकि इनकी मान्यता उस वर्ग द्वारा दी जाती है जिन पर ये अपराध हो रहे होते हैं। थप्पड़ मारना अपराध नहीं है, थप्पड़ मारने को अधिकार मानना और उसके लिए अपराधबोध ना होना अपराध है। थप्पड़ तब अपराध नहीं है जब सामने वाला भी पलटकर उसी अधिकार से आपको मार सके। थप्पड़ का मारा जाना यदि म्यूचुअल नहीं है तो फिर ये अपराध है। थप्पड़ मारने की ताकत को जेंडर के नजरिए से देखा जाना अपराध है। यदि यह ताकत दोनों के पास समान है तो फिर ‌‌थप्पड़ में कोई बुराई नहीं है। थप्पड़ का अधिकार शायद जैविक अधिकार भी है। मां और बाप अपने बच्चों को थप्पड़ मार सकते हैं ले‌किन एक पति और पत्नी जो कि विधिक रुप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं वह ऐसा नहीं कर सकते।

अनुभव सिन्हा की यह फिल्म किसी एक घटना की वजह से बड़ी नहीं होती। बल्कि यह इसलिए बड़ी होती है क्योंकि वह छोटी-छोटी तमाम उन बातों को अंडरलाइन करती है जिन्हें समाज सोचने को तो दूर उन पर नजर रखने के लायक नहीं समझता। वह छोटे-छोटे समझौते जो एक स्‍त्री हर दिन, हर घंटे, हर मिनट करती रहती है अनुभव उसकी डिटेलिंट पुरुष और स्‍त्री दोनों के नजरिए से अलग-अलग करते हैं। वह चीजों को सही गलत बताए बिना तटस्‍थ होकर देखते हैं, ताकि दोनों के पक्ष खुलकर सामने आ सकें। निर्देशक कई जगहों पर एक आम इंसान बनकर चीजों को देखने का प्रयास करते हैं। ताकि एक बड़े वर्ग का नजरिया उसमें शामिल हो सके।

फिल्म में ‌थप्पड़ की उस घटना को यदि कोर्ट कचहरी की लीगल चीजों से दूर हटाकर सिर्फ उस घटना की प्रतिक्रियाओं को समाज के नजरिए से देखें तो पाएंगे कि हर किसी को अम्मू का रिएक्‍शन थप्पड़ की मुख्य घटना से ज्यादा आपत्तिजनक और ओवर स्टीमेटेड लगता है। इन हर किसी में पुरुष भी हैं और महिलाएं भी। अम्मू का भाई और मां है और विक्रम का भाई और मां भी।

अम्मू के अपने मायके लौट आने के पूरे एपीसोड को देखने से पता चलता है कि महिलाओं की ताकत और उनकी बात का वजन इसलिए कई बार कम हो जाता है क्योंकि उनके इर्द-गिर्द महिलाओं की प्रतिक्रियाएं पुरुषों से ज्यादा डिफेंसिव, परंपरावादी और पितृसत्‍ता को हवा देने वाली प्रवृति के साथ खड़ी दिखती हैं। महिलाएं ऐसा डर की वजह से नहीं करती हैं। फिल्म बताती है कि वह ऐसा अपनी परवरिश की वजह से करती हैं।

लगभग अस्सी फीसदी फिल्म किसी को विलेन नहीं बनाती। यहां तक कि थप्पड़ मारने वाले पति को भी नहीं। एक सीन में जब पति अपनी पत्नी को लेने के लिए उसके घर जाता है तो उसका व्यवहार एक अच्छे इंसान जैसा ही होता है। वह पत्नी से लड़कर अपनी महंगी कार में बैठता है। लेकिन बैक मिरर से अपने ससुर को गेट पर खड़ा हुआ देख लौटकर आकर उनके पैर छूता है। निर्देशक यहां पर यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि विक्रम बुरा व्यक्ति नहीं है। दरअसल उसने कभी इस नजरिए से देखा ही नहीं कि पत्नी को सरेआम थप्पड़ मारना उसके अधिकार के बाहर की चीज है।

आखिरी की बीस फीसदी हिस्से में फिल्म अपने लिए खुलकर खलनायक खोजती है। कोर्ट में लगाए गए आरोप। बच्चे की कस्टडी जैसे सीन फिल्म के हीरो को एक सहज पुरुषवादी व्यक्ति से निकालकर एक बुरे व्यक्ति की तरफ ठकेलते हैं। आखिरी के हिस्से में अपनी बात कहने का यह पैटर्न अनुभव की पिछली फिल्मों मुल्क और आर्टिकल 15 में भी दिखता है। एक छोटे से मोनोलॉग में तापसी उस घटना पर सबकी चुप्‍पी पर वाजिब प्रश्न उठाती हैं जो प्रश्न उस रात से उस घर में तैर रहे होते हैं।

फिल्म को पति-पत्नी के नजरिए के साथ-साथ दोनों मांओं के नजरिए से भी देखने की जरुरत है। ये किरदार रत्ना पाठक शाह और तन्वी आजमी ने शानदार तरीके से किए हैं। अनुभव की पिछली फिल्मों की तहर कुमुद मिश्रा लजवाब हैं। एक पिता-पुत्री के दिलचस्प रिश्ते को वह बहुत सहज तरीके से जीते हैं।

अपने सिनेमाई पुर्नजन्म के बाद अनुभव की यह तीसरी फिल्म है। मुल्क और आार्टिकल 15 की तुलना में थप्पड़ सिनेमाई रुप से 19 फिल्म है। 19 इसलिए कि यह थोड़ी लंबी है और फिल्म के पास उतनी घटनाएं और उपकथाएं नहीं हैं। बावजूद इसके थप्पड़ एक जरुरी तौर पर देखी जानी वाली फिल्म है। यह एक ऐसी फिल्म है जिसे पत्नी अपने पति और सास के साथ देखने जाएं।




2 comments:

  1. Ati sundar rohit ji 👌👌👌

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  2. Film jabardasti ka sauda lagi. Jo heroine chahti hai (waise vo chahti kya hai, iskaa pata hi nahin chala.) wo sab to usaka pati pooraa kar deta hai tab bhi alag ho gai? bat ahazam nahin huyee. In binduon par Neeche ke review se jyada sahmat https://cinemanthan.com/2020/05/13/thappad/ SK

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