Sunday, March 15, 2020

अंग्रेजी मीडियम 'कुंए के मेढक' जैसे पिता से भी आपको प्यार करना सिखाती है...




किसी पिता का अपनी संतान से उसके 'एलीट क्लास' में चले जाने के बाद उससे छिटककर धीमे-धीमे दूर होते जाते देखा है? या देखा है ऐसी संतानों को जो गांव-कूंचे से आए अपने मां-बाप को 'अपनी दुनिया' में इंट्रोड्यूस कराने में झिझकते हैं। झिझकते हैं उनके आउटडेटेड सस्ते पहनावे, खांसने, छींकने, डकार लेने की उनकी आवाजों से। यदि देखा है आपने उस डर को जब पिता के गंदे, फटी ऐड़ियों वाले पैर के तलवे से बेटे को हर वक्त अपने मुलायम सोफा के कुशन के खराब हो जाने का डर बना रहता है। डर यह भी बना रहता है कि पिता कब‌ किसके सामने ऐसी बात बोल दें जो उन्हें नहीं बोलनी चाहिए थी। यदि आपने ये जीवन देखे हैं तो अंग्रेजी मीडियम देखते वक्त आपके दिमाग में ऐसी कई फिल्में इस फिल्म के पैरलल चलनी शुरू हो जाती हैं। हो सकता है कि आपके दिमाग में चल रही फिल्मों के किरदार इस फिल्म से ज्यादा सजीव हों। 

हिंदी मीडियम से उलट अंग्रेजी मीडियम फिल्म पढ़ाई के तौर-तरीकों, उसके माध्यम या उसके पूंजीवादी हो जाने पर बात नहीं करना चाहती। हिंदी-अंग्रेजी को बोलने या ना बोल पाने वाला विषय भी यहां बस छूकर ही निकला है। यह फिल्म एक संतान और पिता की कहानी है। परिवेश और उदाहरण बदल जाने के बाद संतान के द्वारा पिता की सीमाओं को देखने की कहानी है। एक पिता की विवशताओं की कहानी है। उसकी विवशता यह है कि वह लंदन आकर भी उदयपुर जैसे छोटे शहर का बना रहता है। पिता का ना बदलना एक संतान के लिए शर्मदिंगी का विषय हो सकता है अंग्रेजी मीडियम इसे जज्बाती होकर नहीं कॉमिक तरीके से कहने की कोशिश का नाम है। 

 हम सभी उम्र के एक पड़ाव से जरुर गुजरते हैं जब अब तक सबसे स्मार्ट और समझदार लगने वाले इंसान के रुप में हमारे पिता बौने और संकीर्ण लगने लगते हैं। फिल्म एक सीन में तारिका बंसल का किरदार निभा रही राधिका मदान चंपक उर्फ इरफान से कहती हैं "ना पापा आपने दुनिया नहीं देखी है। आपने सिर्फ उदयपुर देखा है। मैं दुनिया को देखना चाहती हूं" इस वाक्य के बोले जाने के ठीक पहले इरफान उन्हें दुनिया देखने और पिता होने का हवाला दे रहे होते हैं। इस  सीन के साथ आपको दंगल फिल्म का वह सीन याद आ सकता है जब अपने नेशनल कोच से ट्रेनिंग लेकर लौटी बेटी अपने पिता को दंगल में सबके सामने अपने आधुनिक तरकीबों से चित कर देती है। शरीर पर पुती मिट्टी से गहरी मिट्टी उस पिता के सीने में जा समाई होती है जिसने अपनी बच्ची को उनके होश संभालने से लेकर अब तक कुश्ती सिखाई होती है। अंग्रेजी मीडियम में यह सीन उतने पैने तरीके से नहीं कहा गया लेकिन समस्या वही थी। 


अंग्रेजी मीडियम की बेटी, बाप को चैलेंज नहीं कर रही है। वह सिर्फ अभी अभी देखी दुनिया को अपने ढंग से ‌बिना पिता की दखल के देखना चाहती हैं। वह उस रिति रिवाज को निभाना चाहती है जो उसे अभी बहुत प्रभावित कर रहे हैं।अंग्रेजी मीडियम की यह ताकत और खूबसूरती है कि अपने पिता को कुएं का मेढक कह देने के बाद भी फिल्म उस लड़की को खलनायिका के तौर पर पेश नहीं करती। फिल्म उस लड़की के सहज बदलावों के साथ खड़ी दिखती है और यह मानती है कि यह 'टेम्परेरी' है।  साथ ही पिता के किरदार को और मेच्योर बनाते हुए उससे कुछ दार्शनिक बातें भी कहलवाती है। 

फिल्म के अंतिम सीन में इरफान खुद से मोनोलॉग करते हुए कहते हैं कि "एक उम्र आती हैं जब अभी तक ऊंगली पकड़कर चल रहे बच्चे हाथ छुड़ाने लगते हैं। हमें बुरा तो लगता है लेकिन यदि वह हाथ नहीं छुड़ाएंगे तो गले कैसे मिलेंगे"। यह एक वाक्य निर्देशक के दृष्टिकोण को जस्टीफाई करने की कोशिश करता है। जहां यह फिल्म बहक रहे बच्चे को वापसी की राह भी दिखाती है और पिता की सोचने की क्षमता को भी स्माल से एक्सट्रा लॉर्ज की तरफ ले जाती है। 

एक मैसेज देने से इतर यदि आप फिल्म को सिर्फ फिल्म के नजरिए से देखते हैं तो यह एक टाइम पास कॉमेडी फिल्म है। इस फिल्म के पास पंचेज अपनी पिछली फिल्म जैसी नहीं हैं। ना ही उस तरह के सीन हैं जो आपको बाद तक हंसाएं। फिल्म का फर्स्ट हॉफ अपेक्षाकृत धीमा है लेकिन इसकी भरपाई सेकेंड हॉफ बेहतर तरीके से करता है। अपने समकालीन अभिनेताओं में इरफान का कद शायद सबसे ऊंचे मुकाम पर है। इरफान कैंसर से पीड़ित हैं। फिल्म में इरफान के पेस और रिफलेक्‍शन को देखकर महसूस किया जा सकता है कि वह वाकई बीमार हैं। निर्देशक होमी अदजानिया की यह खूबी है कि बीमार होने की वजह से उनके स्लो हो जाने को वह अपने किरदार को गढ़ने में लगा लेते हैं। 

इरफान की जोड़ी दीपक डोबरियाल के साथ कमाल की है। वैसे जोड़ीदार के रुप में दीपक, माधवन के साथ और इरफान नवाज के साथ बहुत बेहतर भूमिकाएं कर चुके हैं। बावजूद इसके यह फिल्म इस बात के लिए भी याद की जाएगी कि इन दोनों की जोड़ी परदे पर किस उच्च स्तर वाली कॉमिक जुगलबंदी करती है। राधिका ने बहुत सारे टीवी सीरियल किए हैं लेकिन मैंने उन्हें सिर्फ इसके पहले विशाल भारद्वाज की फिल्‍म पटाखा में देखा था। इस फिल्म के जरिए राधिका अपनी रेंज दिखाती हैं। बाप-बेटी के दृश्य उन्होंने अच्छे किए हैं। करीना कपूर, डिंपल कपाड़िया, रणवीर शौरी के लिए अलग से कहने लायक कुछ भी नहीं हैं पर यह सबको ही लगता है कि काश पंकज त्रिपाठी को थोड़ा रोल और मिलता....

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