Saturday, February 22, 2020

ताजमहल के कुछ हिस्से अच्छे हैं और बाकी किसी पुरानी इमारत की नकल जैसे...


'यह गलतफहमी है कि लड़के सेक्स में इंन्ट्रेसटेड होते हैं और लड़कियां प्यार में, We like men with good bodies and good looks'...

अपने ट्रेलर के पहले सीन में लड़की से यह डायलॉग बुलवाकर 'ताजमहल 1989' नाम की वेब सीरिज एक खास तरह के ऑडियन्स को दाना डालने का काम करती है। पर यह सिर्फ एक रैपर है। रैपर खोलने पर फिल्म ऐसी नहीं निकलती।फिल्म का मिजाज ना तो सेक्स संबंधों को लेकर लिबरल हो रहे समाज को अंडर लाइन करता है और ना ही नाम के अनुरूप यह कोई पीरियड प्रेम कहानी है।

'घोस्ट स्टोरी', जमताड़ा: सबका नंबर आएगा' के बाद 'ताजमहल 1989' नेटफ्लीक्स ओरिजनल की इस साल की तीसरी इंडियन वेब सीरिज है। 'ताजमहल' साल 1989 के भारत को लखनऊ विवि कैंपस में कैमरा रखकर उसके इर्द-गिर्द बन रही सोसाइटी को देखने को कोशिश करती है। फिल्म अपने साथ कई उपकथाएं बुनती है जिसके सिरे आपस में यूनीविर्सटी कैंपस में आकर जुड़ते हैं। ताजमहल एक तरह का फ्लैशबैक का सिनेमा भी है, खासकर उनके लिए जो 90 के दशक को खुद से बहुत कनेक्ट करते हैं। 2020 में बैठकर 1989 को देखना सुखद लगता है, लेकिन इस पर बनावटी होने का इल्जाम भी लग सकता है।

1989 और उसके बाद का वह भारत जब बीजेपी देशभर में राम मंदिर बनाने के लिए रथयात्रा निकाल रही थी, विहिप घर-घर जाकर लोगों से मंदिर के लिए एक ईंट देने की मुहिम पर थी, आरक्षण पर समाज खेमे में बंट चुका था, कश्मीर से कश्मीरी पंडित भगा दिए गए थे, बाबरी ढह गई थी, मुंबई सहित देश भर में दंगे भड़क चुके थे, उस दौर की यह फिल्म दो ऐसे अधेड़ शादीशुदा जोड़ों की रोमांटिक जिंदगी दिखाती है जहां एक की बीवी मुसलमान है तो दूसरे का शौहर। फिल्म का वह सीन फिल्‍म की टोन सेट करताा है जब मुसलमान शौहर अपने हिन्दू फादर इन लॉ को फोन पर सलाम बोलता है, उसके अगले ही पल खुद को करेक्ट करके प्रणाम कह देता है। दोनों ही जोड़ों को ना तो मंदिर जाते दिखाया जाता है और ना ही मस्जिद। जो सेक्युलर शब्द इन दिनों लगभग देशद्रोही के पैरलल आकर खड़ा हो गया है, फिल्म के तमाम सारे दृश्य हिंदुस्तान के उसी सेक्युलर जामे की पहचान कराते हैं। फिल्म में मिया-बीवी अनबन तलाक तक आ जाती है लेकिन उनके बीच धर्म या उसके निर्वाह करने का तरीका कभी नहीं आता।

मुसलमान शौहर(अख्तर बेग) और हिंदू पत्नी(सरिता) के ये रोल नीरज काबी और गीतांजलि कुलकर्णी बहुत ही सुंदर ढंग से निभाते हैं। नीरज से आप 'तलवार', 'सेक्रेड गेम्स', 'शिप ऑफ थीसिस' के मार्फत परिचित हैं और गीतांजलि को आप मराठी की चर्चित फिल्म 'कोर्ट' और ‌हिंदी फिल्‍म 'फोटोग्राफ' से याद कर लेंगे। अख्तर लखनऊ विवि में फिलॉसफी पढ़ाते हैं और बीवी फिजिक्स। टेस्ट और इंटलैक्ट लेवल पर दोनों अलग-अलग खड़े हैं। दोनों के शौक और प्रियॉरिटी भी मैच नहीं करते। बात करने के लिए उनके पास कॉमन टॉपिक नहीं होते हैं। पर एक जमाने में शौहर ने बीवी के लिए एक कॉपी भर के शायरियां लिखी थीं। और होने वाले ससुर के कहने पर फिलॉसफी में मास्टर भी किया था..

इस कहानी का एक और सिरा अख्तर के हिंदू दोस्त(सुधाकर मिश्रा) और उनकी मुसलमान बीवी(मुमताज) की तरफ खुलता है। ये रोल दानिश हुसैन और शीबा चड्ढा करते हैं। इन दोनों से आप वाकिफ हैं। मिश्रा, विवि में फिलॉसफी के गोल्ड मेडलिस्टि रहे हैं लेकिन अब पिता जी की सिलाई की पुस्तैनी दुकान चलाते हैं। फिल्म के सबसे अच्छे सीन इन दोनों दोस्तों की मुलाकातों और उनके दरम्यान होने वाली बातचीत में निकलकर आते हैं। ओल्ड मॉक की कभी क्वार्टर तो कभी अध्‍धा रम दोनों स्टील के गिलासों में प्लास्टिक के जग से पानी भर-भर के खत्म करते हैं। चारपाई के बीचो-बीच रखी नमकीन की प्लेट एक किरदार की तरह होती है। इन्हीं निजी पलों में मिश्रा, अख्तर को बताते हैं कि उनकी बीवी अब तक उनकी बीवी नहीं हुई हैं और वह उन्हें लखनऊ के एक कोठे में मिली हैं। शादी करने की हिम्मत फिर भी अब तक नहीं आई है।

फिल्म की बाकी कथाएं विवि की राजनीति, उनमें पनपने वाले अफेयर, उनके धोखे और छल की कहानियां हैं। ये फिल्म के कमजोर हिस्से हैं। कमजोर इसलिए कि इससे मिलती जुलती ढेरों कहानियां आप सिनेमा में देख चुके हैं। कॉलेज कैंपस के बहुत सारे सीन, एक अफेयर का दूसरे में शिफ्ट हो जाना आपको प्रकाश झा के बैनर की फिल्म 'दिल दोस्ती ईटीसी' और अनुराग की फिल्म 'गुलाल' की याद दिला सकते हैं। नेटफ्लिक्स ओरिजनल सीरिज की किसी फिल्म की कहानी या स्किप्ट किसी हिंदी फिल्म से प्रेरित लगे तो यह नेटफ्लीक्स ओरिजनल के पूरे कॉनसेप्ट पर ही प्रश्न खड़ा करता है।


वेब सीरिज की कुछ बातें इसके पक्ष में जाती हैं। पहला कलाकारों का अभिनय। पुराने कलाकारों के अलावा जिन नए चेहरों को मौका‌ मिला है उनके चेहरे पर नए होने की जल्दबाजी नहीं दिखती है। कई टीवी ऐड में दिखने वाली अंशुल चौहान प्रभावित करती हैं। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी अच्छी है। कैमरा कई अच्छी चीजों को कैप्‍चर करता है। छोटे-छोटे दृश्य तब बड़े हो जाते हैं, जब कैमरा ठहरकर उनमें दिलचस्पी दिखाता है।, लेकिन वह तब गलतियां भी कर देता है जब 1989 में मेट्रों लाइन का एक पुल एक दृश्य में दिख जाता है। फिल्म की मजबूती उसके डायलॉग भी हैं। पति और पत्नी के बीच होने वाली बातचीत को बहुत सलीके से लिखा गया है जहां ह्यूमर अपने शबाब पर है। कुछ अवधी बोली के संवाद भी हैं, वह कच्चे हैं।

सात एपीसोड की यह सीरिज कहीं से यह संकेत नहीं देती कि इसका सीक्वल आने की कोई संभावना है। फिल्म का सबसे सपाट एपिसोड आखिरी है। एक लड़की को अगवा करने और उसे आगरा से छुड़वा लेने की एक बचकानी कहानी ये बताती है कि निर्देशक पुष्पेंद्र नाथ मिश्रा के पास दिखाने के लिए उस समय का परिवेश था, पात्र भी थे लेकिन उसके समांनतर एक उम्दा कहानी नहीं थी। आप सिनेमा कैसा भी बनाए, आपके पास उसे खत्म करने की एक कहानी जरुर होनी चाहिए..

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