Wednesday, May 4, 2011

उम्मींदे के बोझ तले दब गई फिल्म

 आईएम फिल्म के निर्देशक ओनियर ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि सिर्फ मैं और संजय सूरी ही इस फिल्म के निर्माता नहीं हैं। भारत के अलग-अलग शहरों के ४०० सिनेप्रेमियों का पैसा इस फिल्म में लगा है। दरअसल सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक के माध्यम से निर्माताओं ने लोगों से फिल्म को आर्थिक सहयोग करने की अपील की थी। एक हजार रुपए से ५० हजार रुपए तक की रकम चेक द्वारा फिल्म के निर्माताओं को मिली। अनुराग कश्यप, अनुराग बासु जैसे फिल्म निर्देशकों सहित कई कलाकारों ने इस फिल्म में बगैर मेहनताना काम किया है। फिल्म बनने के पहले ही यह एक प्रयोगिक फिल्मी कहानी थी। भारत में ऐसे प्रयोग कम ही हुए हैं। ऐसी फिल्में बनने से पहले ही हजारों प्रबुद्ध लोगों की अपेक्षाओं के बोझ तले दब जाती हैं। दर्शक उम्मींद करते हैं कि जब निर्माता दूसरे के सामने पैसे की झोली फैला रहे हैं तो उनके पास पैसों को छोडक़र सबकुछ होगा। चौंकाने वाले कहानी, सशक्कत अभिनय और एक बहुत ही सार्थक संदेश। भारत में फिल्म निर्माण के मामले में जब ऐसे प्रयोग हुए हैं तो हिंदी दर्शकों के इस मामले में लगभग अपरिपक्व ही माना गया है। ऐसी फिल्में अंग्रेजी में बनी हैं और उनकी डबिंग हिंदी सहित अन्य भाषाओं में हुई है। पहले तो ओनियर और संजय सूरी के इस प्रयास और साहस पर बधाई मिलने चाहिए कि उन्होंने हिंदी दर्र्शकों की परिपक्वता पर विश्वास किया है। हिंदी में बनाई गई धोबीघाट जैसी फिल्म न चलने के बाद भी उनकी विश्वसनीयता खतरे में नहीं आई है। हां रिस्क न लेने की सोच के चलते हर डॉयलाग यहां तक कि गानों का अंग्रेजी अनुवाद पर्दे पर आता रहा है। फिल्म के कई संवाद ठेठ बंगाली और कश्मीरी में भी हैं। लगभग ११० मिनट की इस फिल्म में चार कहानियां हैं। चारो कहानी एक-दूसरे से सीधी जुड़ी हुई तो नहीं हैं पर एक-दूसरे से कनेक्ट जरूर हैं। चार में से दो कहानियां पुरुष समलैंगिकता पर केंद्रित हैं। एक कहानी स्पर्म डोनेशन की है और एक कश्मीरी पंडितों की व्यथा की। नंदिता दास, जूही चावला, मनीषा कोईराला, संजय सूरी, राहुल बोस और अनुराग कश्यप इन चार कहानियों के प्रमुख चेहरे हैं। कश्मीरी पंडितों की व्यथा या समस्या पर शायद ही इधर कोई फिल्म आई है। कश्मीरी पंडितों की समस्या चेहरे पर आए मुहांसों और अनचाहे बालों जैसी है। जिसके चेहरे पर आएं उसके लिए बहुत बड़ी और दूसरों के लिए नगण्य। वही दर्शक इस कहानी से जुड़ते हैं जिन्हें थोड़ा बहुत कश्मीरी पंडितों के निष्कासन की कहानी मालूम है। शेष को मनीषा और जूही की ऐक्टिंग भर याद रहती है। नंदिता दास के टेस्ट ट्यूब बेबी प्रणाली से बच्चा पैदा करने की कहानी सबसे आकर्षक कही जा सकती है। इस कहानी को थोड़ा और विस्तार मिलना चाहिए था। फिल्म में सबसे जटिल कहानी संजय सूरी और अनुराग कश्यप की है। यह कहानी दर्शकों का अतिरिक्त ध्यान चाहती है। सीधे कहें तो समझ का इम्तहान। इस कहानी के आने पर मेरे साथ फिल्म देख रहे चार और दर्शको में से दो आपस में बात करने लगते हैं और दो कुछ खाने-पीने के जुगाड़ में ऑडी से बाहर निकल जाते हैं। बात को स्पष्ट रूप से न कहकर रूपक के माध्यम से दर्शाना इस कहानी की विशेषता है। संजय सूरी ने बेहद अच्छी और सधी हुई भूमिका निभाई है। कहानी में संजय सूरी और अनुराग कश्यप स्टेप फादर और बेटे की भूमिका में हैं। उन दोनों के बीच के अजीब प्रेम को दर्शक बहुत बाद में समझ पाते हैं। फिल्म की अंतिम कहानी भी कुछ-कुछ इसी कहानी जैसी है। वास्वविक दिखाने के स्वार्थ में इस कहानी के संवाद कुछ भद्दे और अश्लील हो गए हैं। रोमांच के लिहाज से यह कहानी सबसे सशक्कत है। यही से फिल्म खत्म होती है। पूरे भारत में फिल्म को दो तरह के दर्शकों ने देखा। पहले वह जो फिल्म के बारे में पहले से जानते थे और दूसरे वह जो इसे अन्य फिल्मों जैसी फिल्म मानकर गए थे। पहली श्रेणी के दर्शकों को यह समझ में नहीं आ रहा था कि इतना रिस्क लेने के बाद बनाई गई इस फिल्म को क्या यही कहानियां और विषय मिले थे। ऐसे बहुत से विषय हैं जिन पर फिल्में नहीं बनाई गई हैं पर उन पर फिल्में बनाई जा सकती हैं। ऐसे विषयों को क्यों नहीं चुना गया। कहानी चुनने के मामले में ईमानदारी अपनाई गई है समझदारी नहीं। पुरुष समलैंगिकता अब कोई नया विषय नहीं रहा। बस उसे दर्शाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। दूसरे श्रेणी के दर्शक यह समझ नहीं पा रहे थे कि इन चारों कहानियां का मतलब क्या हुआ। ऑडी से निकलते हुए चलो दिल्ली, शोर इन सिटी के पोस्टर देखते हुए उनके चेहरे बता रहे थे कि फिल्म चयन में उनसे गलती हो गई है।
                                                                                                                          रोहित मिश्र
                          
    

1 comment:

  1. रोहित जी एक अच्छी समीक्षा इस फिल्म की आपने की है, लेकिन बहुत साफगोई से कहूं तो मुझे आपके लिखने की शैली से कोफ्त सी हो रही है। कौन सी बात किस नजरिए से कह रहे हैं, इसका तब तक कोई मतलब नहीं है, जबतक इसके ब्रम्हांडिय स्वरूप का ख्याल न रखा जाए। संस्कृत भाषा की कठिनाई और इसके साथ चलने वाले व्याकरणीय जटिलतम तत्वों का इसके लुप्त होने में अहम रोल है। बात अच्छी है, लेकिन भारी सुरक्षा और अबुझ किस्सों में खो गई तो अर्थ सिकुड़ जाता है, सार-संक्षेप अविस्तृत रह जाता है। मैं आपकी लेखन शैली में इतना उलझ गया कि आईएम के बारे में बात हो रही है, या समलैंगिकता, चंदा करके बनाई गई फिल्म, या अभिनेताओं के अभिनय की। कहां कब कौन सा ट्विस्ट आपने लिया। यह कठिन है। कथा, किस्सों, कहानियों और ज्ञान के थेगड़ों से सिला साहित्य न तो समाज को कुछ देता है और न ही वह समाज के लिए लिखा जाता है। इसका सार्वजनिक होना और न होना दोनों ही बातों में फर्क नजर नहीं आता। मुझे आपकी पोस्ट पर इतना लिखना पड़ा, शायद मेरा बौद्धिक स्तर वो नहीं या फिर आपका लेखन स्तर अतिकठिन है। इससे पाठक पूरी तरह से उलझ जाता है। समुद्र की गहराई से रत्नखोजी पाठकों के लिए तो यह शैली ठीक है, लेकिन फिर सवाल है कि उनके लिए दुनिया में और भी विकल्प हैं। जबकि नदियों, तालों, नालों और स्वीमिंग पूलों में तैरने वाले पाठकों के लिए यह कठिन और चुनौतीपूर्ण हो जाता है। जमाना क्षणभुंगरता का है, मींस मूंमेटिव टाइम। जो चीज जितने जल्दी मिले और जैसे भी मिले। वरना विकल्प हजार हैं।
    आपका
    बड़ा बाजार

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