Friday, May 13, 2011

डराते तो, फिर ठीक से डराते

फिल्म समीक्षा: रागिनी एमएमएस


एकता कपूर के निर्माण में बनी फिल्म रागिनी एमएमएस १३ मई को नहीं बल्कि १५ अप्रैल को रिलीज होने वाली थी। प्रदर्शन के लिए फिल्म के फाइनल प्रिंट आऊट निकलवाए जा रहे थे कि अचानक प्रिंटर खराब हो गया। एकता ने भगवान बजंरग बली से मनौती मांगी कि यदि प्रिंट खराब नहीं हुए तो वह हनुमान चालीसा का उपयोग फिल्म में कहीं न कहीं करेंगी। फिल्म में और कहीं हनुमान चालिसा पाठ की गुजांइश बनती नहीं थी कि इसलिए फिल्म की शुरुआत की उन्होंने हनुमान चालिसा के पाठ से की। रागिनी एमएमएस के ठीक एक सप्ताह पहले घोषित भुतही फिल्म हांटेड प्रदर्शित हुई थी। मल्टीप्लेक्सों में फिल्म इस शुक्रवार भी उपलब्ध थी। एकता ने जानबूझ कर रागिनी को भुतही फिल्म कहने के बजाय इसे एमएमएस की एक सच्ची घटना पर आधारित बताया। फिल्मी गलियारों में भी इस बात की चर्चा होती रही कि रागिनी एमएमएस भी लव सेक्स और धोखा की तरह प्रयोगधर्मी फिल्म है। इंटरवल के थोड़ा पहले तक रागिनी एक बी ग्रेड फिल्म लगती है। अपनी अश्लील दृश्यों और संवादो को जोड़ दें तो सी ग्रेड जैसी। एकता कपूर और फिल्म निर्देशक पवन कृपलानी की निगाह दो तरह के दर्शकों पर थी। पहले वह जो फिल्म के पोस्टरों से उत्साहित होकर कुछ देख लेने के जुगत में आए थे। दूसरे वह जिन्हें भूतों की अलौकिक क्षमताओं से बहुत उम्मींदे होती हैं। पहली श्रेणी के दर्शकों को भूत से चिढ़ थी। नायक-नायिका के बीच जब कुछ होने को होता तो चुड़ौल के रूप में मराठी बोलने वाला भूत आ धमकता। दूसरे किस्म के दर्शक यहां थोड़े खुश होते कि भूत टिक-टिक की आवाज निकालकर फिर खसक लेता। इंटरवल के पहले तक दोनों ही तरह के ही दर्शक तरसाए गए। मंध्यातर के बाद पहले किस्म के लोगों को अनदेखा करके सिर्फ डराने का प्रयास किया गया। इंटरवल के बाद की कहानी में एकता कपूर और निर्देशक के बीच में कुछ ठनी से दिखती है। एकता रागिनी को लव सेक्स और धोखा के पैटर्न में विकसित और खत्म करना चाहती थीं तो निर्देशक इसे हॉरर फिल्म बनाने में आमादा थे। भुतही फिल्मों में आमतौर पर भूत को अपना अतीत बताने का कुछ समय दिया जाता है। इस फिल्म में भूत के लिए यह गुंजाइश नहीं रखी गई।आश्चर्य इस बात का है कि जब दर्शकों को सिर्फ डराना ही था तो उन्हें छोटी-छोटी किस्तों में क्यों डराया गया। दोनों ही श्रेणी के दर्शक किसी भारी-भरकम क्लाइमेक्स की कल्पना कर रहे थे कि तभी अचानक फिल्म खत्म हो जाती है। एकता को यहां पर या तो सिर्फ डराना था या एमएमएस कांड को चटखारे के साथ पेश करना था। दोनों को दिखाने के चक्कर में किसी के साथ न्याय नहीं हो पाया है। फिल्म में सबसे अच्छी बात दोनों मुख्य कलाकारों का अभिनय है। राजकुमार यादव खासतौर पर प्रभावित करते हैं। वह अभिनेता जैसी शक्ल या डायलॉग डिलवरी तो नहीं रखते पर खुद को होशियार मानने वाले शहरी मध्यमवर्ग युवा का अच्छा प्रतिनिधित्व जरूर करते हैं। कैनाज मोतीवाला का अभिनय भी अच्छा रहा। कस्बों और गांव में जब यह फिल्म पहुंचेगी तो दर्शकों यह समझ नहीं आएगा कि नायक ने नायिका को बांध क्यों दिया था। सेक्स के शहरी चोचले वहां के दर्शकों के लिए एक बड़ा प्रश्न बनकर उभरेंगे।

रोहित मिश्र

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