Friday, May 20, 2011

दर्शक दया करने आए ताली बजाने के लिए नहीं

फिल्म समीक्षा: स्टेनली का डिब्बा


स्टेनली का डिब्बा देखने गए अधिसंख्य दर्शक पूरी फिल्म में इस बात का इंतजार करते रहे कि कब भयंकर इमोशनल दृश्य आएं और वह रोना शुरू कर दें। मम्मियां तो खासतौर पर अपने को इसके लिए तैयार करके आईं थी। अगर रुलाना फिल्म की सफलता थी तो यह फिल्म असफल कही जाएगी। अंत के आठ या दस मिनट में कुछ भावुक दृश्यों की आस बंधी थी पर वह दृश्य इमोशनल न बनाकर फिल्मी बना दिए गए। स्टेनली को एक ऐसे हीरो के रूप में पेश कर दिया गया जो सारी समस्याएं बगैर किसी से शेयर किए हुए झेलता रहता है। दर्शकों को यहीं खटका लगता है। वह स्टेनली की विवशता और स्थितियोंं पर आंसू बहाने के लिए आए थे। जब किसी के लिए करुणा उपज आए तो ठीक उसी वक्त उसके लिए प्रशंसा नहीं निकलती। निर्देशक इस मनोविज्ञान को समझ नहीं पाए। फिल्म के निर्देशक, लेखक और निर्माता अमोल गुप्ते हैं। फिल्म में बड़ा सा रोल भी उन्होंने हथिया रखा था। अमोल २००७ में आई फिल्म तारे जमीं के क्रिएटिव निर्देशक थे। तारे जमीं की सफलता के बाद उन्होंने घोषणा की थी कि वह बच्चों पर एक और फिल्म बनाएंगे। स्टेनली का डिब्बा का निर्माण २००८ से शुरू हुआ। फिल्म की शूटिंग दो सालों में हर शनिवार के कुछ घंटों में हुई है। तारे जमीं के उलट फिल्म बिल्कुल पिटे-पिटाये बाल मजदूरी विषय पर केंद्रित है। जैसे दहेज, भष्ट्राचार, घूसखोरी विषय गंभीर होते हुए भी अब हमे चिंतित नहीं करते कुछ वैसा ही रवैय्या हमारा बाल मजदूरी पर भी है। मतलब समस्या गंभीर है पर हम उसके बारे में दो सेकेंड भी सोचना नहीं चाहते। स्टेनली का डिब्बा फिल्म बीच से ही विखर गई। खत्म होने के १५ मिनट पहले तक यह एक हिंदी केे एक भुखड़ टीचर की कहानी लगती है और अंत में दर्शक निराश होकर लौटते हैं।

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