Saturday, May 7, 2011

दर्शक डरते तो हैं पर हंसते ज्यादा हैं

 फिल्म समीक्षा: थ्रीडी हांटेड
                 
                 जो लडक़ी बहुत खूबसूरत नहीं होती, शादी पर लडक़े वालों को वह पसंद आ जाए इसके लिए माता-पिता लडक़ी के परिचय में कुछ यह जोड़ देते हैं कि लडक़ी खाना अच्छा बनाती है, खूम झमाझम नाचती है। कोयल जैसा गाती है या कुछ और अच्छा कर लेती है। विक्रम भट्ट ने कुछ ऐसा ही अपनी फिल्म हांटेड के साथ किया है। विक्रम को पता था कि हांटेड राज या १९२० जैसी खूबसूरत  फिल्म नहीं बन पाई है इसलिए उन्होंने उसके साथ थ्रीडी होने की विशेषता चस्पा कर दी। हांटेड के थ्रीडी प्रिंट बहुत ही सीमित संख्या में प्रदर्शित हुए हैं। अधिसंख्य स्थानों पर यह  टू डी के रूप में ही रिलीज हुई है। विक्रम ने चालाकी से फिल्म की चर्चा थ्रीडी पर ही फोकस रखी। उसका उन्हें उनका फायदा भी मिल रहा है। मतलब लडक़ी को लडक़े वालों ने फिलहाल पसंद कर लिया है। कहानी के आधार पर फिल्म घिसी-पिटी है। पिछली कुछ हॉरर फिल्मों की तरह यहां भी विदेशी विश्वविद्यालय से ऊंची पढ़ाई करके लौटा होनहार युवक है। वतन लौटते ही उसको गुमनाम क्षेत्र में बनी हवेली को संभालना है। हवेली के आसपास घूमता एक पागल है। पादरी है ।धार्मिक बाबा हैं। मंत्रो का उच्चारण है। एक लडक़ी है और एक आत्मा है। यह बताने की जरूरत नहीं है कि आत्मा बिगड़ी हुई है। इतने बातें तो दर्शक फिल्म शुरू होने के सात मिनट के अंदर जान जाते हैं। जिज्ञासा बस इतनी बचती है कि फिल्म में उसे कैसे दिखाया जाता है। फिल्म के कुछ दृश्य हॉरर फिल्मों की पारंपराओं जैसे हैं। यहां-वहां लाश के बिखरे टुकड़े, चीख-चिल्हाट। हवेली के किसी हिस्से से आवाज निकलना। किताबों का गिरना कुर्सी का सरकाना आदि.. । फिल्म के कुछ दृश्य बहुत ही घटिया हैं। फिल्म में नायक की शक्तियां  असंतुलित होने के साथ अपरिभाषित है। भूत की शक्तियों में भी असंतुलन है। कभी वह ईटों की कई दीवारों एक साथ बना-बिगाड़ देता है तो कभी दरवाजे की एक कुंडी भी नहीं खोल पाता। क्लाइमेक्स भूत के मरने को बहुत डरावने तरीके से नहीं दिखा पाता। फिल्म का अंत कुछ भ्रम पैदा करने वााला है। मिथुन चक्रवर्ती के बेटे मिमोह चक्रवर्ती इस फिल्म में नाम बदलकर महाक्षय चक्रवर्ती हो गए हैं। एक-दो दृश्यों को छोडक़र वह बिल्कुल असर नहीं छोड़ते। नवोदित टिया बाजपेई के पास एक्टिंग के नाम पर चीखने का मौका था और उन्होंने पूरा दम लगाकर चीखा भी है। फिल्म में बुरी आत्मा बने आरिफ जकारिया से बेहतर काम उनके मेकअप मैन ने किया है। कहानी के साथ ही इस फिल्म के गाने भी विक्रम की पुरानी फिल्मों से कमजोर हैं। फिल्म को एक बार उसके थ्रीडी होने के लिए देखा जा सकता है। पर यह पता करने के बाद कि वहां फिल्म टूडी में है या थ्रंीडी में।
                                                      रोहित मिश्र

1 comment:

  1. बढिय़ा है, फिल्म में कहानी तो कुछ थी नहीं, लेकिन बात अच्छी है कि फिल्म और भी अच्छी इसी कहानी और परिस्थितियों के साथ हो सकती थी। लेकिन डायरेक्टर ने शुरू में पागल बाद में पीर के रूप में दिखाए कहानी के कुंडली पात्र का चयन गलत किया है, वह पागल होकर भी सही अभिनय का पागलपन नहीं दिखा पाया। महाअक्षय तो जैसे मासूम गली का आम आदमी नजर आते हैं, बेचारे सही से बोल भी नहीं पाते, कुछ एक्टिंग क्या करते। एक गाने में जहां उन्हें मासूम प्यार से मिक्स अभिनय देना था, वहां उन्होंने आश्चर्य और गुस्से का सा चेहरा दिखाया है। समीक्षा होते-होते चूक सी गई है, कहीं किस्से में घुस गए आप तो कहीं एक्टिंग में समग्रता कहीं नहीं दिखती। कोशिश होती कि शुरुआती फ्लो बाद तक बना रहता। कमेंट तो भैया शादियों में लिए दिए जाने वाले व्यवहार की तरह होते हैं, तो रोहित जी जरा........

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