Friday, December 2, 2011

फिल्म क्या सिल्क को श्रृद्धांजलि देने के लिए बनी है !




फिल्म समीक्षा: द डर्टी पिक्चर

किसी की जिंदगी में कितने भी उतार-चढा़व, जीत-हार या उपलब्धियां क्यों न हों पर वह इतने मनोरंजक और सिस्टमैटिक नहीं होते कि उन्हें फिल्मा भर देने से एक मुकम्मल फिल्म बनकर तैयार हो जाए। फिल्म को फिल्म की तरह बनाना पड़ता है। किसी की जिंदगी उससे झलक सकती है पर वह फिल्म पूरी-पूरी जिंदगी नहीं हो सकती। डर्टी पिक्चर देखने वाले ज्यादातर दर्शक यह जानते थे कि यह फिल्म साउथ अभिनेत्री सिल्क स्मिता के जीवन पर आधारित है। बावजूद इसके वह इस फिल्म से एक फिल्म की उम्मीद कर रहे थे। शुरुआत से लेकर अंत तक उन्होंने एक फिल्म की आशा रखी, फिल्म जैसे डायलॉग और उतार-चढ़ाव लेकिन मिलन लूथरिया फिल्म बनाने के बजाय सिल्क को श्रृंद्धांजलि देते दिखे। गली मोहल्ले से आई एक महात्वाकांक्षी पर अनकल्चरड लडक़ी की कहानी कहते हुए वह पूरीे फिल्म को सिर्फ उस लडक़ी के नजरिए से दिखाने की कोशिश करने लगे। उसके अलावा भी कोई और नजरिया या दुनिया हो सकती है शायद इस बारे में सोचा ही नहीं गया। वह इस अनकल्चरड पर महात्वाकांक्षी लडक़ी को नायिका के रूप में खड़ा तो कर देते हैं पर उस नायिका के क्षरण और उस क्षरण की वजह गिनाते समय फिल्म उनसे छटक जाती है। इंटरवल के बाद यह फिल्म, फिल्म न होकर कुछ- कुछ घटनाओं की एडटिंग भर है।


डर्टी पिक्चर देखते हुए कहीं-कहीं देवदास और खेले हम जी जान से फिल्में याद आती हैं। देवदास का नायक देवदास था पर देवदास बनाते समय संजय लीला भंसाली को यह याद रहा कि वह देवदास की आदतों का महिमामंडन नहीं कर रहें बल्कि एक फिल्म बना रहे हैं। जिसमे ऐश्वर्य भी हैं और माधुरी भी। जो गलती आशुतोष गौरवीकर ने खेले हम जी जान में की थी वह गलती लूथरिया डर्टी पिक्चर में करते हैं। फिल्म बनाने के बजाय लूथरिया सिल्क की आदतों और प्रवृतियों को दिखाते रहे। फिल्म के शुरुआती कुछ मिनट खासे उबाऊ हैं। बाद में फिल्म पटरी तो पकड़ लेती है पर फिल्म में ऐसी मनोरंजक घटनाएं नहीं हैं कि दर्शक उससे जुड़े रहे। फिल्म का सबसे बेहतर पक्ष एक्टिंग और सबसे खराब पक्ष एडटिंग है। नसीर के हिस्सें में जितना था उतना उन्होंने अद्भुत किया है। विद्या कॅरियर के शायद अपने सबसे बेहतर रोल में हैं। अपने पतन के दृश्यों में उन्होंने यादगार अभिनय किया है। इमरान को महात्मा बनते देख अच्छा लगा। तुषार कपूर के लिए बेहतर है कि वह रोहित शेट्टी से बात करके गूंगे की कोई भूमिका फिर से मांग ले। बोलते हुए वह बड़े दयनीय लगते हैं।

1 comment:

  1. घटिया और खराब के बीच की सर्वश्रेष्ठ मूवी डर्टी
    दी डर्टी पिक्चर की पूरी पटकथा ही एक नॉनसिविक अतिमहत्वाकांक्षी लडक़ी के जीवन को केंद्र में रखकर लिखी गई है, तो यह और भी जरूरी हो जाता है, कि पूरा किस्सा उसी के मुंह से कहा जाए, उसकी ही आंखों से देखा जाए और खासकर उसके ही मन से महसूस किया जाए। लूथरिया इनमें से दो बातों में तो सफल हूुए किंतु नायिका के मन को सही तरह से सामने नहीं रख सके। यहां पर फैशन फिल्म की जिक्र करना होगा, जहां महत्वाकांक्षा और सफलता के बीच के तालमेल को खूब पेश किया गया था। और एक ऐसा भी वक्त आया जब यह फिल्म एक अच्छी प्रस्तुति बनकर दर्शकों को भावुक भी कर देती है। अक्सर किस्सों में मुख्य किरदार का सडक़ों पर आना दर्शकों को भावुक कर देता है, यहां विद्या के अभिनय का चरम दिखता है, मगर यह स्थित उसकी जिस घमंड और अव्यवस्थित सफलता, गुण और अवगुण का असंतुलित अनुपात के कारण होती है, वह भी उतनी ही मजबूती से दिखाना जरूरी होता है। इस नजरिए से फिल्म दर्शकों को नहीं जोड़ पाती, एक अच्छी सोच और विचार के साथ पेश की गई संतुलित समीक्षा रही। तुषार को वाकई अभी तक तो लोग गूंगा स्वीकार भी कर रहे थे, किंतु अगर एकाधिक और फिल्म उन्हें संवाद वाली मिल जाएं, तो मुमकिन है उन्हें किराना व्यापार शुरू करना पड़े। इसके साथ इमरान का प्यार कुछ समझ भी नहीं आता, कहां शुरू होता है और कहां खत्म। और जब उन्हें बुद्धिजीवी की एक्टिंग करना थी, तो उन्होंने चश्मों को ताकत बना लिया और जब देवदास बनना था तो वाइस ओवर का सहारा डायरेक्टर को लेना पड़ा। कुल मिलाकर डर्टी एक घटिया प्रयोग और फिल्म है।
    -सखाजी

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