Sunday, June 3, 2012

इस बार संजय लीला भंसाली ने दर्शकों के आईक्यू पर भरोसा किया
इन दिनों फिल्मकारों को दर्शकों की बढ़ती गैरतार्किक बुद्धि के चलन पर बड़ा भरोसा हो चला है। दबंग, वांटेड, सिंघम, बॉडीगार्ड फिल्मों को हिट कराने वाले इन दर्शकों के आईक्यू लेवल पर विश्वास करते हुए संजय लीला भंसाली ने इस बार अपने आईक्यू पर विश्वास नहीं किया। वह प्रभुदेवा की शरण में गए हैं। संजय लीला भंसाली की पिछली तीन फिल्में माई फ्रेंड पिंटो, गुजारिश और सांवरिया असफल रही हैं। शायद इसी बीच उनका आईक्यू लेवल गिरा होगा। संजय इंटलैक्चुल सिनेमा के पैरोकार माने जाते हैं। ऐसी फिल्म बनाने के पहले उनके मन में कुछ अगर-मगर जरूर रहे होंगे। इसी अपराधबोध में उन्होंने कुछ ऐसे इंटरव्यू दिए हैं जिनमें ऐसी फिल्म को आज के सिनेमा की जरूरत बताया गया है। राउठी राठौर दरअसल ऐसे वर्ग की फिल्म है जिसके लिए सिनेमा देखना सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन है। इसके आगे की बात वह करना नहीं, सोचना भी नहीं चाहते। तो ऐसे दर्शक वर्ग को रिझाने के लिए नायक बहुत दरियादिल, कमदिमाग और शारीरिक रूप से बहुत हष्ट-पुष्ट होना चाहिए। चूंकि नायिका को इसी नायक पर मर मिटना है इसलिए वह होशियार तो होगी नहीं। इसलिए फिल्म की नायिका पूरी तरह से बौड़म है। नायक नेकदिल है तो खलनायक बहुत ही कमबख्त और क्रूर होना चाहिए। इन सबके बीच देशकाल भी अंधा कानून जैसा दिखे तो अच्छा है। सबकुछ उसी आईक्यू लेवल का है तो गीत भी वैसे हों। गौर करें, पैजामा है तंग लगोट ढीला है। दर्शक चूंकि रिस्क नहीं लेते इसलिए उनके लिए राउठी के ऐसे पोस्टर डिजाइन किए गए हैं जो पूरी तरह से पैसा वसूल थे। मतलब जी भरकर पोस्टर भी देख लिया तो आधा काम बन गया। डायलॉग भी बिल्कुल सीधे-सपाट समझ में आ जाने वाले। जिसने समझा कि मैं डर गया वो अर्थी पर अपने घर गया। फिल्म की नायिका का मामला बड़ा दिलचस्प है। निर्देशक को उनसे अच्छी उनकी कमर लगी। इंटरवल के पहले तक कमर का जिक्र ज्यादा है। नायक की नायिका से मोहब्बत करने की बड़ी वजह भी। जब तक भारत में राउठी जैसी फिल्में बनती रहेंगी सोनाक्षी सिन्हां जैसी लड़कियों को काम मिलता रहेगा। अक्षय के लिए शब्दों की बहुत सारी कमी हो गई है।

2 comments:

  1. विक्रमाडू की फ्रेम दर फ्रेम कौपी " राउड़ी" मे अक्षय, रवि तेजा के आगे मात खाते दिखते है|समझ से परे बात यह है की क्यूँ दक्षिण भारतीय फिल्मोंमे खलनायक बिहारी (पढ़ें विनीत कुमार, बाप जी) और हिंदी फिल्मों मे खलनायक दक्षिण भारतीय ( पढ़ें मोहम्मद निसार ,बाप जी ) कास्ट किए जाते है| जहां विनीत कुमारा ढंग से तेलुगु नही बोल पाते वहीं निसार भोजपूरात्मक हिन्दी बोलते हुये नही जमते |

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  2. मैं राउडी राठौर नहीं देख पाया हूं। मुमकिन है इसे जल्द ही निपटाना है। दबंद, बॉडीगार्ड, रेडी जैसी फिल्मे वास्तव में साफ कहती हैं, मनोरंजन, मनोरंजन, मनोरंजन। फिर न जाने क्यों तकलीफ होती है। संसार में हिमालय पर्वत से ठंडे आध्यात्मिक पहाड़ हैं तो कंटीले पहाड़ भी हैं। इसका मतलब यह तो नहीं हो जाता कि दुनिया में कंटीले ही पहाड़ होते हैं। दरअसल फिल्मी वैविध्य है। इसे स्वीकारिए। दर्शकों से जब फिल्म की वजन तौला जाता है, तो मुमकिन है कई हल्की लगें, और कई भारी। किंतु मामला हल्के भारी का है ही नहीं यह तो महज इस पर्दे की दुनिया का वैविध्य है।

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