Saturday, June 16, 2012

इतनी आदर्श दुनिया देखने के आदी नहीं हैं हम फिल्म की सबसे अच्छी बात आखिर में जाकर उसके खिलाफ खड़ी हो जाती है। वह है सभी किरदारों का अपने जीवन के उच्चतम काल्पनिक आदर्शों में जीना। ऐसे आदर्श जो कहीं-कहीं दर्शक के लिए इतनी खीझ पैदा करें कि उसे लगे यह बेवकूफ कर क्या रहा है। फिल्म का नायक चौराहे पर हवलदार न होने पर जब रेड सिग्नल तोड़ता है तो वह दूसरे चौराहे पर उसकी रसीद कटवाता है। ट्रैफिक पुलिस के सभी अधिकारी काम के प्रति इतने समर्पित हैं कि वह गाड़ी उठाने में इस बात की परवाह बिल्कुल नहीं करते कि वह किसकी गाड़ी है। १२ साल का बच्चा जीत हार की भावुकता पर पार पाते हुए अंपायर को सच-सच बता देता है कि कैच पकड़ते वक्त उसका पैर बाउंड्री लाइन पर था। चंूकि असल जिंदगी में हम ऐसा नहीं करते हैंं इसलिए ्रइसे देखकर हमें कई जगह खुशी तो हो सकती है पर उससे जुड़ाव बिल्कुल नहीं होता। फिल्म के एकमात्र पात्र बोमने ईरानी दर्शकों को अपने बीच के आदमी लगते हैं। अपने बीच के इसलिए क्योंकि उनके पास सही-गलत को जज करने का अनुपात वैसा है जैसा कि दुनिया में जीने के लिए जरूरी है। बाकी पात्रों के पास यह अनुपात न होना ही फिल्म की एक बड़ी कमी है। यह फिल्म बिना मतलब की मध्यमवर्गीय भावुकता पैदा करने की कोशिशें दर्जनों पर करती है। फिल्म में निर्देशक ने दर्शकों से कम से कम पचास जगह नायक और उसके बेटे के लिए दया की भीख मांगी है। दया और धैर्य का एक सीमित कोटा होता है। फिल्म के निर्देशक उस कोटे का दोहन हर पांच मिनट में कर रहे होते हैं। यह बात उन्हें भी शायद इंटरवल के आसपास महसूस हुई। तो इंटरवल के बाद जहां दर्शकों के इमोशन को चूसना था वह यह फिल्म लगभग कॉमेडी बन जाती है। इस कॉमेडी को जैसे-तैसे अस्पताल पहुंचाकर सत्यानाश किया जाता है। फिल्म का अंत तो बहुत ही खराब तरीके से लिखा गया है। फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष फिल्म की एडटिंग है। कुछ दृश्य बेवजह इतने लंबे खींंचे गए हैं कि उनका न होना ज्यादा बेहतर होता। शरमन जोशी हिंदी फिल्मों के ऐसे दर्जनों अभिनेताओं की तरह है जो छोटी भूमिका में ही जंचते हैं। बड़ी भूमिका में उनकी पोल खुल जाती है। यह फिल्म उन्हें किसी नए मापदंड पर स्थापित नहीं करती।

1 comment:

  1. फिल्म में कई अव्यवहारिक बातें समाहित हैं, सिवाए इसके कि एक आरटीओ का क्लर्क फरारी के सारे ड्रायविंग फंक्शन जानता है। इसका ख्याल डायरेक्टर खूब रखा, शर्मन जोशी की गाडिय़ों में गहरी रुचि बताकर यह साबित कर दिया। रहा सवाल आदर्शों की पराकाष्ठा का तो यह दूध में पानी न मिलाने की एकल ईमानदारी जैसा है। मसलन घर के 10 सदस्यों को 1 लीटर दूध से चाय पिलानी है तो पानी मिलाना बेईमानी नहीं, लेकिन चूंकि मुहवरा मन में गढ़ लेना कई बार कॉमन सेंस को खत्म कर देता है। कुछ ऐसा ही हुआ भी है, फरारी की सवारी में।

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