Friday, June 8, 2012

इस फिल्म को इंटलैक्चुअल सराहेंगे, फिल्म समारोह में जाएगी, लेकिन ऐसी फिल्मों की वजह से ही राउठी राठौर और दबंग बनती रहेंगी जब मैं दसवीं क्लास में था तो राम मोहन तिवारी नाम के एक सज्जन मुझे गणित पढ़ाते थे। उनका नाम राम मोहन तिवारी था यह मुझे उनकी पहली क्लास ज्वाइन करने के लगभग ६ महीने बाद पता चला। हम उन्हें फैक्टर सर कहकर बुलाते। साइंस बैकग्राउंड वाले जानते हैं कि फैक्टर गणित:१ में कितना महत्वपूर्ण चैप्टर है। शंघाई फिल्म देखते हुए मुझे मेरे फैक्टर सर याद आए। फैक्टर सर के साथ एक समस्या थी कि उन्हें गणित का बहुत विशाल ज्ञान था। दूसरी समस्या यह थी कि गणित पढ़ाते वक्त वह हमसे गणित की उस फ्रीवेंक्सी में बात करते जिस फ्रीक्वेंस में उनको गणित आती। छात्र यह तो समझते कि बात गणित की ही हो रही है लेकिन वह उनकी गणित में अपने को इनवाल्व न कर पाते। उन दिनों क्लास बंक करना संज्ञेय अपराध के दायरे में था इसलिए हम सब उनकी क्लास के चालीस मिनट काटते। शंघाई देखते समय फैक्टर सर इसलिए याद आए क्योंकि वह गणित तो बहुत ऊंचे स्तर की पढ़ा रहे थे पर यह गणित दर्शकों के पल्ले बहुत नहीं पड़ती। नई पीढ़ी के प्रतिभाशाली युवा निर्देशक जब फिल्में बनाते हैं तो उनके कई टारगेट होते हैं। जाहिर है कि दर्शक सबसे बड़ा टारगेट। दर्शकों के साथ ही साथ वह अपने समकालिक निर्देशकों के लिए फिल्म रचते हैं, फिल्म समारोह के लिए फिल्म रचते हैं और यह बात सुनने के लिए भी फिल्म रचते हैं कि इन दिनों भारत में अलग हटकर फिल्में बन रही हैं। संघाई बाद की इन तीनों ही बातों के साथ न्याय करती है। शंघाई के माध्यम से दिबाकर एक गंभीर विषय पर फिल्म रचने का प्रयास करते हैं। उनकी कोशिश उम्दा है। यह कोशिश तब और भी सम्मानित हो जाती है जब वह इमरान हाशमी और अभय देओल से उनकी बनी छवि से बिल्कुल विपरीप का काम लेते हैं। एक लाइन में शंघाई किसी कम्यूनिस्ट रचनाकार की रचना लगती है। जहां एक बस्ती को हटाकर मॉल बनाने की तैयारी है। इससे आ रही रुकावटें घटनाएं हैं और बाद में सरकार का एक्सपोज हो जाना फिल्म का क्लाइमेक्स। दिवाकर बनर्जी इस फिल्म के पहले खोसला का घोसला, ओक लक्की लक्की ओए और लव सेक्स धोखा जैसी फिल्में बना चुके हैं। रचना के आधार पर शंघाई इन फिल्मों से बड़ी फिल्म है। बस खटका यह है कि यह फिल्म दर्शकों को अपने साथ लेकर नहीं चल पाती। फिल्म के शुरुआत से ही ठहरी हुई लगती है। इंटरवल के बाद फिल्म अपनी कमजोरी को ठीक करने का प्रयास करती है। अंत के दस मिनट प्रभावी लगते हैं। फिल्म में कुछ अद्भुत दृश्य और संवाद हैं। यह फिल्म इमराश हाशमी के लिए उपलब्धि है। उन्होंने इंडस्ट्री को दिखाया है कि वह कुछ और भी कर सकते हैं। अभय देओल, फारुख शेख भी अद्भुत रहे। कलकी और पिताबश हर फिल्म में एक जैसी ही ऐक्टिंग करते हैं।

2 comments:

  1. मुझे बहुत शानदार लगी फिल्म, आपकी समीक्षा से पूरी तरह विरोध !

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    1. फिल्म देखना पड़ेगी। शंघाई हो सकता है कुछ अच्छी हो। बहरहाल ईश्वरीय वैविध्य को समझना जरूरी है। उसने दो तरह के लोग बनाए हैं, पहले तो भोग विलासता या जीवन यापन वाले दूसरे संसार को कुछ देकर जाने वाले। तो संभव है शंघाई इनमें से दूसरे लोगों के लिए हो, जो कि अपेक्षाकृत बहुत ही कम हैं।

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