Saturday, February 22, 2020

हिंदी सिनेमा के लिए सिर्फ कॉमेडी है विवाहेत्तर संबंध


 कुछ सालों पहले जब ये फिल्म मैंने कमलेश्वर की वजह से दोबारा देखी तो मुझे यह कॉमेडी फिल्म लगी। गोविंदा की साजन चले ससुराल, दूल्हे राजा, छोटे सरकार टाइप की कोई भी कॉमेडी फिल्म जैसी। अभी जब कुछ सप्ताह पहले इसी नाम वाली एक और फिल्म आई है तब भी इतने बरसों के बाद भी उसका अंदाज सिगरेट पीने और पकड़े जाने जैसा ही रहा है।

हिंदी सिनेमा इस विषय पर जज्बाती होकर नहीं बल्कि तफरी के अंदाज में सिनेमा गढ़ता दिखा है। ऐसी बहुत सारी कॉमेडी फिल्में हैं जिसमें नायक अपनी पत्नी से उबकर सिर्फ सेक्स की लालसा में यहां वहां 'मुंह मारने' की कोशिशों में लगा दिखता है। सिनेमा दिखाता है कि नायकों की एप्रोच उन लड़कियों के प्रति रही है जिनके कपड़े पत्नी की तुलना में आधुनिक हैं और सेक्‍स को लेकर उनके विचार 'लिबरल' हैं। बाद में ये हीरो रंगे हाथों पकड़ लिए जाते हैं और मासूम सा चेहरा बनाए पत्नी से वादा करते हैं कि अब आगे से वह सिगरेट नहीं पीएंगे। पत्नियां मान जाती हैं और फिल्म खत्म हो जाती है।

हिंदी सिनेमा ने इस समीकरण को पलटकर बनाने की कोशिश नहीं की है, कि पत्‍नी किसी सिंगल लड़के से अफेयर करे, बाद में वह पकड़ी जाए और फिल्म कॉमेडी हो, इस तरह के सिचुवेशन शायद समाज अभी एफोर्ड नहीं कर सकता? यदि सिचुवेशन होगी भी तो कॉमेडी नहीं होगी। निर्देशक को शायद यह लगता है कि पत्नियों का अफेयर करना कॉमेडी नहीं है और यह छिपकर सिगरेट पीने जैसा भी नहीं है। 

इसी तरह ऐसी फिल्में बनाने में भी सिनेमा की दिलचस्‍पी नहीं रही है जहां पर पति का अफेयर उस लड़की से हो जो ना तो 'लिबरल' हो ना ही सिंगल। दोनों विवाहित हों और दोनों मन के किसी कोने के खालीपन को भरने के लिए करीब आने की कोशिश में हों। और यह करीब आना भी इंटेनशनल ना हो। इस तरह के एक्वेशन में सेक्स प्रियॉरिटी में नहीं होगा। ये संबंध सेक्स के लिए बन भी नहीं रहे होंगे।

 करण जौहर की फिल्म कभी अलविदा ना कहना , अस्तित्व और सिलसिला इस ट्रैक की फिल्‍में हैं जहां चीजें हास्य के रुप में नहीं पेश की गई हैं। सेक्सुअल अट्रैक्‍शन यहां प्रधानता में नहीं है। एक तनाव किरदारों के जेहन और चेहरे में दिखा है, पर इन फिल्मों में भी विवाहेत्तर संबंधों की जटिलताएं नहीं रिफलेक्ट होती हैं।

 खुद की जरुरतें वर्सेज परिवार की अपेक्षाएं, गिल्ट का बढ़ता-घटता बोझ, निरंतर हर पल चलने वाला कश्माकस, बिस्तर पर जिस्मों को लेकर एक अनचाही तुलना, अनचाही तुलना के बाद आने वाला गिल्ट, मूड ‌स्विंग, रिश्तें का अंधकार भरा भविष्य, इन सबके बाद भी उसे चलाए रखने की चाह जैसी बातें भी इन फिल्मों में नदारत दिखीं।

 विवाहेत्तर संबंधों का एक मनोवैज्ञानिक बोझ ये फिल्में संभालकर लेकर चलने में अक्षम साबित रही हैं। किरदार किन किन छोटी छोटी बातों से जूझ रहा है फिल्में वहां तक पहुंचने की कोशिश नहीं करती हैं। या ये कह सकते हैं कि ऐसी फिल्में बनी ही नहीं ‌जिनमें इन बातों को इस तरह से देखने की कोशिश की गई हो।

ऐसा नहीं है कि ऐसा ख्याल नहीं आया होगा। हिंदी साहित्य के पास ऐसी कुछ कहानियां हैं जहां पर पति और पत्नी दोनों ही अफेयर में हैं। रिश्तों और समाज का मनोवैज्ञानिक पक्ष वहां दिखता जरूर है पर वहां भी लेखक इस चीज को लेकर उपापोह में है कि वह कहानी को खत्म कहां करें।

राष्ट्रवाद वर्सेज मानवतावाद की तरह ही शादी वर्सेज प्रेम की कोई सटीक व्याख्या ना अब तक हुई है और ना ही शायद इससे हर कोई सहमत होगा। बावजूद इसके हमें सिनेमा से ऐसी फिल्में की उम्‍मीदें हैं जो इस विषय को उसी संजीदा तरीके से पेश करें जिस तरह के ये विषय हैं। कॉमेडी हम किसी और फिल्म में देख लेंगे।

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